नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर साम्प्रदायिकता का भयानक खेल खेला । जिससे मुस्लिम समाज आहत है । यह गोधरा कांड से भी कहीं ज्यादा गहरी चोट दे गया । आखिर यह उपवास क्यों ? मुझे इस उपवास का कोई विशेष मकसद नहीं दिखता । सद्भावना के उपवास में मोदी ने मुस्लिम टोपी पहनने से इनकार कर मुसलमानों के प्रति अपनी भावना जाहिर कर दी । साथ ही हिन्दू धर्म की वसुधैव कुटुम्बकम और दूसरे धर्मों के प्रति समान रूप से सम्मान की भावना भी आहत हुई है ।
गाँधी तो सदियों में एक होंगे । वह भी घोर तपस्या और संघर्ष के बाद ।
दूसरी बात समझ नहीं आ रही है कि इस सरकार के सलाहकारों को क्या हो गया ? क्या वे विपक्ष के साथ है ?
ग़रीबी रेखा पर कांग्रेस सरकार का आंकड़ा बेहद शर्मनाक है !क्या सरकार के इन मंत्रियों को मालूम है कि आम आदमी के एक समय का सादा खाना कम से कम ३० रुपये में बनता है दो समय का साठ रुपये में ।
यह आकंडा तो सरकार के किसी सलाहकार और मत्री ने मिल कर किसी पञ्च तारा होटल में बैठकर ही बनाया होगा । गरीब को और महंगाई को देख कर नहीं । ग़रीबी और बदहाली को देखना है तो गावों में देखो , महानगरों की अँधेरी तंग गलियों में जाकर देखो । तब आकंडा पेश करो ।
एक तथ्य तो स्पष्ट है कि सरकार के मंत्री गण ही विपक्ष को हल्ला करने का मौका देरहे हैं। क्यों ?क्या उन्हें माननीय मनमोहन सिंह जी बर्दाश्त नहीं हो रहे हैं ?या सरकार की दूसरी पारी हजम नहीं हो रही ?
यदि कोंग्रेस विवेक से निर्णय ले तो सरकार अवश्य तीसरी बार भी कांग्रेस की ही बनेगी ।
शुक्रवार, 23 सितंबर 2011
रविवार, 18 सितंबर 2011
पहाड़ और पलायन
आज दिन घर पर ही गुजरा ।
आँगन में कुछ काम किया । कुछ देर खेत में काम किया । असोज का महीना है । एक तरफ खेतों में अनाज तैयार खड़ा हैं दूसरी तरफ जंगलों में घास भी तैयार है ।
किसान इतने व्यस्त हैं कि उनके पास सांस लेने की भी फुर्सत नहीं है । लेकिन दूसरी तरफ महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि गावों में किसान दिन प्रति दिन कम होते जा रहे हैं । लोगों का रुझान खेती की ओर से हट रहा है । वे लोग बस किसी भी प्रकार खेती से छुटकारा पा कर कोई भी नौकरी कर लेना चाहते है। लोगों ने यह धारणा बना ली है कि पहाड़ों में खेती में अब भविष्य नहीं रहा । जिस गावं में भी जाता हूँ देखता हूँ कि गावों में खेत के खेत बंजर पड़े हैं । जो घर में हैं भी वे भी खेती के इच्छुक नहीं दिखाई देते । वे भी खेतों को बंजर छोड़ते जा रहे हैं । पशुधन कम होते जारहे हैं । लोग अपने मवेशियों को छोड़ कर उनसे पीछा छुड़ा रहे हैं । किसी समय में पहाड़ के किसानों की रीढ़ होने वाले जानवर आज पहाडो में यत्र तत्र आवारा घूम रहे हैं । कहीं वे बाघ का निवाला बन रहे हैं तो कहीं लोग उन्हें बुरी तरह पीट कर भगा रहे हैं । गाय किसी युग में माता के सामान हुआ करती होगी । आज तो एक बोझ है। मनुष्य की एक क्रूरता स्पष्ट रूप से सामने आ रही है ।
यहाँ से पलायन कर गया अधिकांश युवक कोई बेहतर स्थिति में नहीं दिखाई देते । यदि वे घर पर रह कर अपने लिए खेतों में रोजगार के नए अवसर पैदा करने कि कोशिश करते तो कहीं बेहतर स्थिति में होते ।
आज भी पहाड़ में खेती के स्वर्णिम अवसर हैं । आवश्यकता है तो मेहनत की। बुद्धि की । युक्ति की । कृषि में नए प्रयोग करने की । उद्यान में नए प्रयोग करने की । पानी और हवा में नए प्रयोग कर अवसर पैदा करने की ।
आज पलायन पहाड़ के वयोवृद्ध पुरुषों व महिलाओं के लिए एक त्रासदी बनकर सामने आ रही । वे घरों में एकाकी पड़ गए हैं । उनका अंतिम समय अपने बच्चों के साथ के बगैर गुजर रहा है। वे मौन होते जा रहे हैं । वे असहाय होते जा रहे हैं । वे अपने अंतिम समय को लेकर खुश नहीं हैं।
आँगन में कुछ काम किया । कुछ देर खेत में काम किया । असोज का महीना है । एक तरफ खेतों में अनाज तैयार खड़ा हैं दूसरी तरफ जंगलों में घास भी तैयार है ।
किसान इतने व्यस्त हैं कि उनके पास सांस लेने की भी फुर्सत नहीं है । लेकिन दूसरी तरफ महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि गावों में किसान दिन प्रति दिन कम होते जा रहे हैं । लोगों का रुझान खेती की ओर से हट रहा है । वे लोग बस किसी भी प्रकार खेती से छुटकारा पा कर कोई भी नौकरी कर लेना चाहते है। लोगों ने यह धारणा बना ली है कि पहाड़ों में खेती में अब भविष्य नहीं रहा । जिस गावं में भी जाता हूँ देखता हूँ कि गावों में खेत के खेत बंजर पड़े हैं । जो घर में हैं भी वे भी खेती के इच्छुक नहीं दिखाई देते । वे भी खेतों को बंजर छोड़ते जा रहे हैं । पशुधन कम होते जारहे हैं । लोग अपने मवेशियों को छोड़ कर उनसे पीछा छुड़ा रहे हैं । किसी समय में पहाड़ के किसानों की रीढ़ होने वाले जानवर आज पहाडो में यत्र तत्र आवारा घूम रहे हैं । कहीं वे बाघ का निवाला बन रहे हैं तो कहीं लोग उन्हें बुरी तरह पीट कर भगा रहे हैं । गाय किसी युग में माता के सामान हुआ करती होगी । आज तो एक बोझ है। मनुष्य की एक क्रूरता स्पष्ट रूप से सामने आ रही है ।
यहाँ से पलायन कर गया अधिकांश युवक कोई बेहतर स्थिति में नहीं दिखाई देते । यदि वे घर पर रह कर अपने लिए खेतों में रोजगार के नए अवसर पैदा करने कि कोशिश करते तो कहीं बेहतर स्थिति में होते ।
आज भी पहाड़ में खेती के स्वर्णिम अवसर हैं । आवश्यकता है तो मेहनत की। बुद्धि की । युक्ति की । कृषि में नए प्रयोग करने की । उद्यान में नए प्रयोग करने की । पानी और हवा में नए प्रयोग कर अवसर पैदा करने की ।
आज पलायन पहाड़ के वयोवृद्ध पुरुषों व महिलाओं के लिए एक त्रासदी बनकर सामने आ रही । वे घरों में एकाकी पड़ गए हैं । उनका अंतिम समय अपने बच्चों के साथ के बगैर गुजर रहा है। वे मौन होते जा रहे हैं । वे असहाय होते जा रहे हैं । वे अपने अंतिम समय को लेकर खुश नहीं हैं।
बुधवार, 14 सितंबर 2011
गुलाम मानसिकता से भी आजादी चाहिए .
हिंदी दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएं ।
उन सभी नेताओं को जो हिंदी या अन्य भारतीय जनों की प्रांतीय भाषाओँ के मतदाताओं के मतों से जीत कर संसद पहुंचते हैं । किन्तु वहां जाकर अंग्रेजी में अपना भाषण देते हैं ।
जब वोट मांगते हैं तब उन्हें हिंदी या अन्य भारतीय/प्रांतीय भाषा बोलनी आती है । किन्तु संसद में पहुंचते ही वे सबसे पहले अपनी भाषा बदलते हैं । यह जनता का सरासर अपमान है । राष्ट्र का अपमान है ,हिंदी का अपमान है । हिंदी भाषियों का अपमान है । जनता को अधिकार है कि वे संसद में अपनी भाषा का तिरष्कार करने वाले सांसदों को भी बदलें .हिंदी के हर साहित्यकार का दायित्व है कि वह प्रधानमंत्री को राष्ट्र भाषा के प्रयोग के लियें लिखें । कम से कम भारत माता के मंदिर में तो राष्ट्र भाषा को प्राथिमकता मिले । वे सांसद जो हिंदी नहीं जानते हैं .क्या अपनी क्षेत्रीय भाषा भी नहीं जानते हैं ।
इस गुलाम मानसिकता से भी आजाद होना ही होगा ।
उन सभी नेताओं को जो हिंदी या अन्य भारतीय जनों की प्रांतीय भाषाओँ के मतदाताओं के मतों से जीत कर संसद पहुंचते हैं । किन्तु वहां जाकर अंग्रेजी में अपना भाषण देते हैं ।
जब वोट मांगते हैं तब उन्हें हिंदी या अन्य भारतीय/प्रांतीय भाषा बोलनी आती है । किन्तु संसद में पहुंचते ही वे सबसे पहले अपनी भाषा बदलते हैं । यह जनता का सरासर अपमान है । राष्ट्र का अपमान है ,हिंदी का अपमान है । हिंदी भाषियों का अपमान है । जनता को अधिकार है कि वे संसद में अपनी भाषा का तिरष्कार करने वाले सांसदों को भी बदलें .हिंदी के हर साहित्यकार का दायित्व है कि वह प्रधानमंत्री को राष्ट्र भाषा के प्रयोग के लियें लिखें । कम से कम भारत माता के मंदिर में तो राष्ट्र भाषा को प्राथिमकता मिले । वे सांसद जो हिंदी नहीं जानते हैं .क्या अपनी क्षेत्रीय भाषा भी नहीं जानते हैं ।
इस गुलाम मानसिकता से भी आजाद होना ही होगा ।
शनिवार, 10 सितंबर 2011
कविता और सत्ता
सुबह जल्दी उठ कर रोज के काम निबटा कर छत में घूमने गया । यह भी एक काम है ।आत्मसंवाद और
प्रकृति से संवाद रोजमर्रा का एक हिस्सा होता है।
और यहीं जन्म लेती हैं कवितायेँ । हवा की मानिंद किताबों से होते हुए आप तक पहुंचती हैं .
आप लोग पढ़ें , न पढ़ें या क्यों पढ़ें । यह तो आप की बात है । मैं तो फूलों से रंग और सुगंध ,जंगलों से हरियाली और हवा ,पहाड़ों से ठंडी बयार ,नदी की छल-छल ,कल-कल की मधुर ध्वनियाँ और सायं -सायं की गर्जना ,तथा अपने मन की बात । सब कुछ मिलाकर आपकी ओर बढ़ा देता हूँ ।
पढ़ना आज एक समस्या हो गयी है । लोगों की दिनचर्या से पढ़ने के लिए समय ख़त्म हो गया है । और प्रेम करने के लिए भी । प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए भी । ह्रदय एक पम्पिंग मशीन बनकर रह गया है । व्यक्ति राजनीति का एक मोहरा मात्र रह गया है । उसकी अपनी चेतना की डोर जैसे राजनेताओं के हाथों में चली गयी हो ।
यहाँ साहित्य समाप्त हो जाता है , कविता समाप्त हो जाती है । संवेदना ख़त्म हो जाती है ।
एक सुगन्धित और खुबसूरत फूल का होना न होना कोई अर्थ नहीं रखता है ।
क्योंकि सत्ता तो लाशों के ढेर के ऊपर से हो कर गुजरती है । तो जाहिर सी बात है की राज नेता भी सत्ता के पीछे पीछे उसी तरह चलता जायगा ।
राजनेता के लिए सत्ता पाना और सत्ता में बने रहना ही अंतिम सत्य है । और यह रास्ता तानाशाही की ओर जाता है । तानाशाह आजकल क्या कर रहें हैं यह तो आप देख ही रहे हैं ।
प्रकृति से संवाद रोजमर्रा का एक हिस्सा होता है।
और यहीं जन्म लेती हैं कवितायेँ । हवा की मानिंद किताबों से होते हुए आप तक पहुंचती हैं .
आप लोग पढ़ें , न पढ़ें या क्यों पढ़ें । यह तो आप की बात है । मैं तो फूलों से रंग और सुगंध ,जंगलों से हरियाली और हवा ,पहाड़ों से ठंडी बयार ,नदी की छल-छल ,कल-कल की मधुर ध्वनियाँ और सायं -सायं की गर्जना ,तथा अपने मन की बात । सब कुछ मिलाकर आपकी ओर बढ़ा देता हूँ ।
पढ़ना आज एक समस्या हो गयी है । लोगों की दिनचर्या से पढ़ने के लिए समय ख़त्म हो गया है । और प्रेम करने के लिए भी । प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए भी । ह्रदय एक पम्पिंग मशीन बनकर रह गया है । व्यक्ति राजनीति का एक मोहरा मात्र रह गया है । उसकी अपनी चेतना की डोर जैसे राजनेताओं के हाथों में चली गयी हो ।
यहाँ साहित्य समाप्त हो जाता है , कविता समाप्त हो जाती है । संवेदना ख़त्म हो जाती है ।
एक सुगन्धित और खुबसूरत फूल का होना न होना कोई अर्थ नहीं रखता है ।
क्योंकि सत्ता तो लाशों के ढेर के ऊपर से हो कर गुजरती है । तो जाहिर सी बात है की राज नेता भी सत्ता के पीछे पीछे उसी तरह चलता जायगा ।
राजनेता के लिए सत्ता पाना और सत्ता में बने रहना ही अंतिम सत्य है । और यह रास्ता तानाशाही की ओर जाता है । तानाशाह आजकल क्या कर रहें हैं यह तो आप देख ही रहे हैं ।
शुक्रवार, 9 सितंबर 2011
रंगों का मेला
मौसम के अनुसार सुबह अपनी रंगत बदलने लगी है । हल्की सी ठंडक , हल्का -हल्का कोहरा , कुछ ओस की बूंदें और धीरे -धीरे धूप का आना । बदलते महीने के साथ मौसम का बदल रहा है ।
कुदरत का यह मिजाज बहुत मन भावन लगता है ।
यह यादों के लौट आने का मौसम है !
जब हमें उम्मीद रहती है किसी के आने की तो लौट कर आती हैं सिर्फ यादें ।
ठण्ड के साथ । ठण्ड की तरह ।
लौट कर आने लगे हैं फूलों के रंग । जंगलों में हरी घास के साथ कई तरह के फूल अपने -अपने रंगों में खिल आए हैं । यूँ लगा कि कुदरत के मेले में सब पौंधे अपने -अपने रंगों की दुकान ले आए हैं । इन खुबसूरत जंगलों से जाने की इच्छा ही नहीं होती है। कौन सा रंग ले जाऊ ? किस रंग से खुश होगी प्रियतमा ?
बहुत सुन्दर है यह रंगों का मेला । तरह -तरह के रंग हैं , सुख के रंग ,दुःख के रंग।
सबसे सुन्दर रंग है प्रीत का रंग ।
कुदरत का यह मिजाज बहुत मन भावन लगता है ।
यह यादों के लौट आने का मौसम है !
जब हमें उम्मीद रहती है किसी के आने की तो लौट कर आती हैं सिर्फ यादें ।
ठण्ड के साथ । ठण्ड की तरह ।
लौट कर आने लगे हैं फूलों के रंग । जंगलों में हरी घास के साथ कई तरह के फूल अपने -अपने रंगों में खिल आए हैं । यूँ लगा कि कुदरत के मेले में सब पौंधे अपने -अपने रंगों की दुकान ले आए हैं । इन खुबसूरत जंगलों से जाने की इच्छा ही नहीं होती है। कौन सा रंग ले जाऊ ? किस रंग से खुश होगी प्रियतमा ?
बहुत सुन्दर है यह रंगों का मेला । तरह -तरह के रंग हैं , सुख के रंग ,दुःख के रंग।
सबसे सुन्दर रंग है प्रीत का रंग ।
गुरुवार, 8 सितंबर 2011
अत्यंत दुखद/निंदनीय
हे भगवान! यह किया किया इन दरिंदों ने ?
दिल्ली बम ब्लास्ट की निंदा करता हूँ ।
ईश्वर बम ब्लास्ट में मारे गए लोगों की आत्मा को शांति प्रदान करे । तथा उनके शोक शंतप्त परिजनों को इस दुःख को सहन करने की शक्ति प्रदान करे ।
यह बहुत ही दुखद है । ओह ! मानवता अभी भी कितने खूंखार दानवों को झेल रही है ।हम अहिंसा के पक्षधर हैं । यह घटना विश्व शांति पर आघात है ।
क्या हम सब सुरक्षित हैं ?
सरकार क्या कर रही है ? सिर्फ घोटाले और भ्रष्टाचार विरोधियों को जेल भेजने में व्यस्त है ?
क्यों?
दिल्ली बम ब्लास्ट की निंदा करता हूँ ।
ईश्वर बम ब्लास्ट में मारे गए लोगों की आत्मा को शांति प्रदान करे । तथा उनके शोक शंतप्त परिजनों को इस दुःख को सहन करने की शक्ति प्रदान करे ।
यह बहुत ही दुखद है । ओह ! मानवता अभी भी कितने खूंखार दानवों को झेल रही है ।हम अहिंसा के पक्षधर हैं । यह घटना विश्व शांति पर आघात है ।
क्या हम सब सुरक्षित हैं ?
सरकार क्या कर रही है ? सिर्फ घोटाले और भ्रष्टाचार विरोधियों को जेल भेजने में व्यस्त है ?
क्यों?
सोमवार, 5 सितंबर 2011
लोग याद रखते हैं .
कई बार पंक्तियाँ लिखी और उतनी ही बार मिटा दी । लिख कर मिटाना लेखक के हाथ में तभी तक है जब तक लिखा हुआ उसके अपने पास तक ही सीमित है । जहां से लिखा हुआ लोगों तक पहुँच जाता है वहां फिर कोई भी लेखक अपना लिखा हुआ मिटा नहीं सकता है । कुछ इस तरह कि पत्र लिखकर डाकखाने में डालने के बाद उसमें कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता । हाँ !दूसरा पत्र लिखकर पहले के लिखे में संसोधन या नया जोड़ने की बात की जा सकती है ।
आज जमाना डाकखाने का तो लगभग नहीं के बराबर है । पत्र आने अब बंद हो गए हैं । फ़ोन पर हुई बात में वह बात नहीं । एक बार मिले पत्रे को हम कई बार पढ़ते हैं । फिर संभाल कर रखते हैं । कुछ दिनों के बाद फिर उसी को पढ़ना चाहते हैं । बरसों बाद भी उसी पत्र को पढ़ कर वही आनंद आता है । और दशकों बाद वह एक बहुमूल्य दस्तावेज बन जाता है । और हम चाहते हैं कि हमारी मृत्यु के बाद भी पत्र सुरक्षित रहे । लोग पढ़ें । हमारे बच्चे ,बच्चों के भी बच्चे और पूरी दुनियां जाने हमारे राज ।
एक बार लिखकर बाहर आने के बाद वह अमिट हो जाता है । लोग याद रखते हैं । पत्रों को ।
पत्रों के बहाने हमको ।
आज जमाना डाकखाने का तो लगभग नहीं के बराबर है । पत्र आने अब बंद हो गए हैं । फ़ोन पर हुई बात में वह बात नहीं । एक बार मिले पत्रे को हम कई बार पढ़ते हैं । फिर संभाल कर रखते हैं । कुछ दिनों के बाद फिर उसी को पढ़ना चाहते हैं । बरसों बाद भी उसी पत्र को पढ़ कर वही आनंद आता है । और दशकों बाद वह एक बहुमूल्य दस्तावेज बन जाता है । और हम चाहते हैं कि हमारी मृत्यु के बाद भी पत्र सुरक्षित रहे । लोग पढ़ें । हमारे बच्चे ,बच्चों के भी बच्चे और पूरी दुनियां जाने हमारे राज ।
एक बार लिखकर बाहर आने के बाद वह अमिट हो जाता है । लोग याद रखते हैं । पत्रों को ।
पत्रों के बहाने हमको ।
शनिवार, 3 सितंबर 2011
आत्म सुधार की कोशिश हो .
अन्ना महोदय के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के बाद अब सरकार अपना अन्ना विरोधी अभियान चला रहीहै ।
सरकार यह भूल रही है कि अन्ना भारत के दूसरे गाँधी हैं । और स्वतंत्र भारत के पहले गाँधी । जनता इसे माफ़ नहीं करेगी । सरकार को सुधार की मुहिम सरकार से आरंभ करनी चाहिए । यदि कांग्रेस चाहती है कि तीसरी बार सत्ता मिले तो उसे अन्ना और अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी जन लोक पाल बिल का सहर्ष स्वागत करना चाहिए । यदि सरकार बदले की भावना से काम करेगी तो मौजूदा सांसदों का दुबारा जीत कर आना मुश्किल होगा ।
सरकार जनता की प्रतिनिधि की तरह काम करे । राज शाही की तरह नहीं । अन्ना के खिलाफ लगातार अनुचित टिप्पणियां करने वाले सरकार के मंत्री और सांसद जनता के बीच सरकार की छवि धूमिल करने का काम कर रहे हैं ।
सरकार यह भूल रही है कि अन्ना भारत के दूसरे गाँधी हैं । और स्वतंत्र भारत के पहले गाँधी । जनता इसे माफ़ नहीं करेगी । सरकार को सुधार की मुहिम सरकार से आरंभ करनी चाहिए । यदि कांग्रेस चाहती है कि तीसरी बार सत्ता मिले तो उसे अन्ना और अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी जन लोक पाल बिल का सहर्ष स्वागत करना चाहिए । यदि सरकार बदले की भावना से काम करेगी तो मौजूदा सांसदों का दुबारा जीत कर आना मुश्किल होगा ।
सरकार जनता की प्रतिनिधि की तरह काम करे । राज शाही की तरह नहीं । अन्ना के खिलाफ लगातार अनुचित टिप्पणियां करने वाले सरकार के मंत्री और सांसद जनता के बीच सरकार की छवि धूमिल करने का काम कर रहे हैं ।
मंगलवार, 30 अगस्त 2011
कहीं कोई सपना नहीं था
कल रात देर तक नींद नहीं आयी ।
तो सोचा कि कुछ रुका हुआ काम निबटा लिया जाय । लेपटोप पर कवितायेँ टाईप की
काम करते- करते तीन बज गए थे । इस बीच रात में कई बार बाहर आया । रात के अँधेरे का सन्नाटा बहुत डरावना लग रहा था ।
पेड़ कैसे रहते होंगे इस भयानक सन्नाटे के बीच ।
किसी पत्ते के गिरने की आवाज भी डरा देती है । मैंने खूबसूरत चांदनी रातों को भी देखा है ।और उन रातों में खड़े पेड़ों की मस्ती और ख़ुशी भी ।
रात भर काम करता रहा, बरसों पुरानी कविताओं के बीच से होकर गुजरा । लगा कि मैं कहीं कुछ छोड़ आया था । जो अब भी वहीँ पर है । एक नदी आज भी वहीँ पर बह रही है । उसकी सायं -सायं कि आवाज अब भी अपनी ओर खींच रही है । आज भी कोई मुझसे मिलने की आतुरता में घर से निकलने का बहाना ढूंढ़ रही है ।
जैसे- तैसे मैंने कवितायेँ समेटी । घडी देखी तो साढ़े तीन बज चुके थे ।
सिर्फ डेढ़ घंटा सोया ।
लेकिन कहीं कोई सपना नहीं था ।
तो सोचा कि कुछ रुका हुआ काम निबटा लिया जाय । लेपटोप पर कवितायेँ टाईप की
काम करते- करते तीन बज गए थे । इस बीच रात में कई बार बाहर आया । रात के अँधेरे का सन्नाटा बहुत डरावना लग रहा था ।
पेड़ कैसे रहते होंगे इस भयानक सन्नाटे के बीच ।
किसी पत्ते के गिरने की आवाज भी डरा देती है । मैंने खूबसूरत चांदनी रातों को भी देखा है ।और उन रातों में खड़े पेड़ों की मस्ती और ख़ुशी भी ।
रात भर काम करता रहा, बरसों पुरानी कविताओं के बीच से होकर गुजरा । लगा कि मैं कहीं कुछ छोड़ आया था । जो अब भी वहीँ पर है । एक नदी आज भी वहीँ पर बह रही है । उसकी सायं -सायं कि आवाज अब भी अपनी ओर खींच रही है । आज भी कोई मुझसे मिलने की आतुरता में घर से निकलने का बहाना ढूंढ़ रही है ।
जैसे- तैसे मैंने कवितायेँ समेटी । घडी देखी तो साढ़े तीन बज चुके थे ।
सिर्फ डेढ़ घंटा सोया ।
लेकिन कहीं कोई सपना नहीं था ।
सोमवार, 29 अगस्त 2011
सत्यमेव जयते
तमाम तरह के विवादों/विरोधों के बाद अंततः संसद की गरिमा कायम रही और जन भावना का सम्मान हुआ । इसे किसी की जीत की तरह नहीं देखना चाहिए । यह एक समाधान था ।
स्वतंत्र भारत में सत्य और अहिंसा का पहला राष्ट्रव्यापी प्रयोग जो पूरे विश्व को एक सन्देश भी दे गया ।
यह तो सर्वमान्य तथ्य है कि दुराचार एक न एक दिन ख़त्म होता ही है । चाहे वह कितना ही सशक्त क्यों न हो ।
लेकिन एक महत्त्वपूर्ण बात सामने आई । सत्य में शक्ति है । कि सिर्फ एक ईमानदार व्यक्ति के पीछे पूरा भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया खड़ी हो गई ।और दिग्गज नेताओं का समूह भी उसके आगे बौना हो गया । यह ईमान के प्रति लोगों की श्रद्धा है । और भ्रष्टाचार के विरुद्ध नफ़रत भी ।
स्वतंत्र भारत में सत्य और अहिंसा का पहला राष्ट्रव्यापी प्रयोग जो पूरे विश्व को एक सन्देश भी दे गया ।
यह तो सर्वमान्य तथ्य है कि दुराचार एक न एक दिन ख़त्म होता ही है । चाहे वह कितना ही सशक्त क्यों न हो ।
लेकिन एक महत्त्वपूर्ण बात सामने आई । सत्य में शक्ति है । कि सिर्फ एक ईमानदार व्यक्ति के पीछे पूरा भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया खड़ी हो गई ।और दिग्गज नेताओं का समूह भी उसके आगे बौना हो गया । यह ईमान के प्रति लोगों की श्रद्धा है । और भ्रष्टाचार के विरुद्ध नफ़रत भी ।
शनिवार, 27 अगस्त 2011
Abhinav Gatha: अन्ना हजारे , देश के आम भारतीय की आवाज .
Abhinav Gatha: अन्ना हजारे , देश के आम भारतीय की आवाज .: आम भारतीय ईमानदारी तथा शराफत से अपना जीवन यापन करने में बिश्वास करता है . अहिंसा ,शांति और धैर्य उसकी पहचान है ,ताकत है । और चाहता है कि दूस...
अन्ना हजारे , देश के आम भारतीय की आवाज .
आम भारतीय ईमानदारी तथा शराफत से अपना जीवन यापन करने में बिश्वास करता है . अहिंसा ,शांति और धैर्य उसकी पहचान है ,ताकत है । और चाहता है कि दूसरा व्यक्ति भी अपना ईमान कायम रखे ।आम भारतीय सिर्फ अपना नहीं ,बल्कि पूरी दुनिया में सत्य अहिंसा और शांति की कामना करता है ।
लेकिन क्या आम भारतीय का नेतृत्व भी उतना ही पाक -साफ़ है ।
यक़ीनन नहीं ।
इसीलिए भ्रष्ट्राचार के खिलाफ अन्ना हजारे को अनशन करते हुए बारह दिन हो गए हैं ।यह भारतीय संसद और सरकार के लिए शर्म का विषय है . अन्ना हजारे के पीछे खड़ी होने वाली भीड़ ने साबित किया कि अन्ना हजारे पूरे देश के आम भारतीय की आवाज है । देश का नेतृत्व भ्रष्ट्राचार के दलदल में डूबता जा रहा है । सांसदों ,मंत्रियों ,मुख्यमंत्रियों के मुह पर सत्ता और दौलत का खून इस तरह लग गया है कि वे घोटालों ,रिश्वतखोरी ,भ्रष्ट्राचार के विरुद्ध बोलने वालों को ही मार खाने को दौड़ रहे हैं ।
वे जन शक्ति को भूल गए हैं । वे यह भी भूल गए हैं कि हमें संसद भेजने वाली यह आम जनता ही है । जिसे ज्यादा समय तक बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता है ।
और सरकारी पक्ष के सभी सांसदों ने अन्ना हजारे के अनशन को एक मजाक बना कर रख दिया है ।
सरकार बदहवास हो गयी है केबिनेट के मंत्री अपनी वाणी पर अपना संतुलन खो चुके हैं।
सरकार और सांसदों ने सिद्ध किया कि भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के हित सर्वोपरि है ।
लेकिन क्या आम भारतीय का नेतृत्व भी उतना ही पाक -साफ़ है ।
यक़ीनन नहीं ।
इसीलिए भ्रष्ट्राचार के खिलाफ अन्ना हजारे को अनशन करते हुए बारह दिन हो गए हैं ।यह भारतीय संसद और सरकार के लिए शर्म का विषय है . अन्ना हजारे के पीछे खड़ी होने वाली भीड़ ने साबित किया कि अन्ना हजारे पूरे देश के आम भारतीय की आवाज है । देश का नेतृत्व भ्रष्ट्राचार के दलदल में डूबता जा रहा है । सांसदों ,मंत्रियों ,मुख्यमंत्रियों के मुह पर सत्ता और दौलत का खून इस तरह लग गया है कि वे घोटालों ,रिश्वतखोरी ,भ्रष्ट्राचार के विरुद्ध बोलने वालों को ही मार खाने को दौड़ रहे हैं ।
वे जन शक्ति को भूल गए हैं । वे यह भी भूल गए हैं कि हमें संसद भेजने वाली यह आम जनता ही है । जिसे ज्यादा समय तक बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता है ।
और सरकारी पक्ष के सभी सांसदों ने अन्ना हजारे के अनशन को एक मजाक बना कर रख दिया है ।
सरकार बदहवास हो गयी है केबिनेट के मंत्री अपनी वाणी पर अपना संतुलन खो चुके हैं।
सरकार और सांसदों ने सिद्ध किया कि भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के हित सर्वोपरि है ।
सोमवार, 25 जुलाई 2011
खाली पन्ने
कभी -कभी मैं सोचता कि कुछ भी न लिखना ही बेहतर होता है । पन्ने को यूँ ही छोड़ देना अच्छा लगता है । कोई शब्द न हो । कोई आकृति न हो ।
आश्चर्य !कि लोग उसमें से भी अपने विचारों के अनुसार सामग्री पढ़ने की कोशिश करते हैं । यानि कि पन्ना कोरा नहीं रहता । आकाश बिल्कुल खाली रहने के बाद भी लोग आकाश में अपना कोई कोना तलाशते हैं ।
अपने विचारों के लिए कोई सितारा तलाशते हैं । खाली आकाश से बातें करते हैं । या मौन होकर आकाश को एकटक निहारते हैं । तारों के बीच देखने की कोशिश करते हैं अपने बिछुड़े हुए प्रिय जनों को ।
लोग खाली पन्नों की किताब को सहेज कर रखते हैं । क्योंकि उसमें दर्ज किया जा सकता है जीवन --मृत्यु पर्यंत ।
लेकिन बहुधा खाली पन्नों की किताब खाली ही रह जाती है।
आश्चर्य !कि लोग उसमें से भी अपने विचारों के अनुसार सामग्री पढ़ने की कोशिश करते हैं । यानि कि पन्ना कोरा नहीं रहता । आकाश बिल्कुल खाली रहने के बाद भी लोग आकाश में अपना कोई कोना तलाशते हैं ।
अपने विचारों के लिए कोई सितारा तलाशते हैं । खाली आकाश से बातें करते हैं । या मौन होकर आकाश को एकटक निहारते हैं । तारों के बीच देखने की कोशिश करते हैं अपने बिछुड़े हुए प्रिय जनों को ।
लोग खाली पन्नों की किताब को सहेज कर रखते हैं । क्योंकि उसमें दर्ज किया जा सकता है जीवन --मृत्यु पर्यंत ।
लेकिन बहुधा खाली पन्नों की किताब खाली ही रह जाती है।
शनिवार, 2 जुलाई 2011
हरियाली है तो जीवन है .
आज पूरा दिन हरियाली की किताब पढ़ता रहा । पिछले तीन -चार दिनों की बारिश के बाद आज चटख धूप थी । धरती के सारे रंग एक नयी आभा से चमक से गए थे ।
आँखों के सामने पहाड़ों में फैली हरियाली थी । जिनमें से पढ़नी थी कथाएं अतीत की । और कथाएं अपने चारों ओर बिखरी लोगों की दिनचर्या की ।
खेतों और हरियाली / अनाज की पौंध से कितना प्यार करती हैं महिलाएं । सब कुछ भूलकर खेतों में रोपाई करने में व्यस्त हैं । कभी बारिश झम्म से आकर उन्हें भिगो जाती है तो कभी धूप गरमी से त्वचा जलने को तैयार रहती है । लेकिन ममता तो ममता है । धान हैं तो सपने हैं । हरियाली है तो जीवन है / प्यार है ।
हरियाली है तो आशा है ।
उमंग है ।
और हैं सपने ।
आँखों के सामने पहाड़ों में फैली हरियाली थी । जिनमें से पढ़नी थी कथाएं अतीत की । और कथाएं अपने चारों ओर बिखरी लोगों की दिनचर्या की ।
खेतों और हरियाली / अनाज की पौंध से कितना प्यार करती हैं महिलाएं । सब कुछ भूलकर खेतों में रोपाई करने में व्यस्त हैं । कभी बारिश झम्म से आकर उन्हें भिगो जाती है तो कभी धूप गरमी से त्वचा जलने को तैयार रहती है । लेकिन ममता तो ममता है । धान हैं तो सपने हैं । हरियाली है तो जीवन है / प्यार है ।
हरियाली है तो आशा है ।
उमंग है ।
और हैं सपने ।
गुरुवार, 30 जून 2011
रात भी एक कविता है .
रात भी एक कविता है ।
कभी ख़ामोशी से पढो ।
दिन से तय कर लो कि आज रात के साथ वक़्त गुजारना है ।
रात के रंग देखने हैं ।
रात आने वाले सपनों का भी स्वागत करना है ।
रात को आपके पास सिर्फ रात रहे ।
कोई शब्द नहीं ।
कभी -कभी शब्द जब ख़ामोशी तोड़ते हैं ।
तो रात चली जाती है ।
तब हम सिर्फ एक अँधेरे से घिरे हुए होते हैं ।
कभी ख़ामोशी से पढो ।
दिन से तय कर लो कि आज रात के साथ वक़्त गुजारना है ।
रात के रंग देखने हैं ।
रात आने वाले सपनों का भी स्वागत करना है ।
रात को आपके पास सिर्फ रात रहे ।
कोई शब्द नहीं ।
कभी -कभी शब्द जब ख़ामोशी तोड़ते हैं ।
तो रात चली जाती है ।
तब हम सिर्फ एक अँधेरे से घिरे हुए होते हैं ।
मंगलवार, 28 जून 2011
प्रेम की बरसात में .
पानी से भरे बादल मन के आकाश को घेरे हुए हैं ।
मेरे भीतर की जमीन देख रही है बादलों को कि बरसे तो भीगेगा रोम -रोम ।
प्रेम की फसल के लिए जरूरी है भीतर के बादलों का बरसना ।
बरसेंगे बदल तो जरूर खिलेंगे हरी जमीन पर हल्के गुलाबी रंग के प्रेम के फूल।
हर चेहरे खिला होगा प्रेम का खूबसूरत रंग ।
लोग मिलेंगे आपस में प्रेम की बरसात में भीगते हुए ।
मेरे भीतर की जमीन देख रही है बादलों को कि बरसे तो भीगेगा रोम -रोम ।
प्रेम की फसल के लिए जरूरी है भीतर के बादलों का बरसना ।
बरसेंगे बदल तो जरूर खिलेंगे हरी जमीन पर हल्के गुलाबी रंग के प्रेम के फूल।
हर चेहरे खिला होगा प्रेम का खूबसूरत रंग ।
लोग मिलेंगे आपस में प्रेम की बरसात में भीगते हुए ।
सोमवार, 20 जून 2011
साँसों में सुगंध
सुबह काफी देर फूलों और पत्तियों के रंगों में खोया रहता हूँ कोशिश करता हूँ कि यह रंग और सुगंध मेरी कविताओं में आ जाय ।या मेरी प्रेमिका की सांसों में . फिर खेतों की तरफ देखता हूँ ।
आजकल खेतों में मेला- सा लगा हुआ है । कोई गुड़ाई में व्यस्त है तो कोई रोपाई में । जमीन में हरे रंग के छींट की चादर बिछने लगी है । किसान सपने बो रहे हैं , सपनों की रोपाई कर रहे हैं ।
बारिश इस रंग में आनंद का एक और रंग घोल रही है ।
खेतों में भीगने का आनंद ।
तन के साथ साथ मन के भीगने का आनंद । बादलों के साथ -साथ घूमने का आनंद . बादलों के बीच सांस लेने का आनंद ।
लगता है कि इस मौसम में पेड़ -पशु- पक्षी -कीट -पतंगे सब एक अनूठे आनंद का अनुभव लेते हैं । एक नई उर्जा अपने भीतर जमा करते हैं .
आजकल खेतों में मेला- सा लगा हुआ है । कोई गुड़ाई में व्यस्त है तो कोई रोपाई में । जमीन में हरे रंग के छींट की चादर बिछने लगी है । किसान सपने बो रहे हैं , सपनों की रोपाई कर रहे हैं ।
बारिश इस रंग में आनंद का एक और रंग घोल रही है ।
खेतों में भीगने का आनंद ।
तन के साथ साथ मन के भीगने का आनंद । बादलों के साथ -साथ घूमने का आनंद . बादलों के बीच सांस लेने का आनंद ।
लगता है कि इस मौसम में पेड़ -पशु- पक्षी -कीट -पतंगे सब एक अनूठे आनंद का अनुभव लेते हैं । एक नई उर्जा अपने भीतर जमा करते हैं .
मंगलवार, 24 मई 2011
आम आदमी का संघर्ष
हम सब देख रहे हैं कि मौजूदा समय में देश को भयंकर आर्थिक असंतुलन ने अपनी गिरफ्त में ले रखा है । सत्ताधारियों की मनमर्जी ही उनकी मर्यादा है । सत्ता अधिक से अधिक धन कमाने का एक जरिया बन गया है । आमआदमी की कहीं कोई चिंता नहीं दिखाई दे रही है। और न ही आम आदमी के जीवन का कोई मूल्य रह गया है। भ्रष्ट नेता को जनता के बारे में सोचने की फ़िक्र कहाँ ? -यह लोक तंत्र का भयंकर असंतुलन हैं । और दुरुपयोग भी । इससे लोगों में लोक तंत्र के प्रति एक शंका उभरती है ।
ईमानदार आदमी को अपना उद्देश्य निरर्थक लगता है .
ईमानदार आदमी असुरक्षित है .क्योंकि सरकार ताकतवर भ्रष्टों का एक समूह बन बन गया है ।
समाज की वर्तमान जीवन शैली में कोई नहीं सोच रहा है देश में सिर्फ अपने आर्थिक हितों के बारे सोचने की एक लाइन बन गयी है सामाजिक हित दरकिनार हो गए हैं । मानवीय हित एक किनारे कर दिए गए हैं ।
एक नीति बन गई है कि कुछ भी करो किसी को भी मारो लेकिन रुपया बनाओ । समय रुपयों का है ।
आज आम आदमी प्रदूषित जिंदगी जीने को विवश है ।वह अपनेऔर अपनी आने वाली पीढ़ी के वजूद के लिए संघर्ष कर रहा है ।आम आदमी व्यवस्था बदलने की सोचता है । लेकिन हर बार दुर्भाग्य से सिर्फ सत्ता बदलती है । कभी चील सत्ता पर होती है तो कभी कौए ।
ईमानदार आदमी को अपना उद्देश्य निरर्थक लगता है .
ईमानदार आदमी असुरक्षित है .क्योंकि सरकार ताकतवर भ्रष्टों का एक समूह बन बन गया है ।
समाज की वर्तमान जीवन शैली में कोई नहीं सोच रहा है देश में सिर्फ अपने आर्थिक हितों के बारे सोचने की एक लाइन बन गयी है सामाजिक हित दरकिनार हो गए हैं । मानवीय हित एक किनारे कर दिए गए हैं ।
एक नीति बन गई है कि कुछ भी करो किसी को भी मारो लेकिन रुपया बनाओ । समय रुपयों का है ।
आज आम आदमी प्रदूषित जिंदगी जीने को विवश है ।वह अपनेऔर अपनी आने वाली पीढ़ी के वजूद के लिए संघर्ष कर रहा है ।आम आदमी व्यवस्था बदलने की सोचता है । लेकिन हर बार दुर्भाग्य से सिर्फ सत्ता बदलती है । कभी चील सत्ता पर होती है तो कभी कौए ।
सोमवार, 18 अप्रैल 2011
उफ!
रात जम कर बारिश हुई ।
बिजली भी चमकी ।
मैं दिल खोल कर बैठा था कि बिजली मेरे दिल में उतरेगी।
लेकिन मालूम नहीं किसके दिल में उतरी ?
जहां उतरी होगी वहां फूल खिल गए होंगे ।
मैं तो बस, भीगता रहा सारी रात । बिलकुल तनहा ।
सुबह देखा तो धरती चमक रही थी ।
रात बिजली हरियाली भी बिखेर गई होगी ।
उफ!
बिजली भी चमकी ।
मैं दिल खोल कर बैठा था कि बिजली मेरे दिल में उतरेगी।
लेकिन मालूम नहीं किसके दिल में उतरी ?
जहां उतरी होगी वहां फूल खिल गए होंगे ।
मैं तो बस, भीगता रहा सारी रात । बिलकुल तनहा ।
सुबह देखा तो धरती चमक रही थी ।
रात बिजली हरियाली भी बिखेर गई होगी ।
उफ!
मंगलवार, 12 अप्रैल 2011
सुबह से इंतज़ार कर रहा हूँ कि कब बारिश हो । लेकिन बादलों को तो जैसे बूंदें गिराने में डर लग रहा है ।
इस मौसम में बारिश चाहिए ।
गधेरे/श्रोत /नदियाँ सूखने के कगार पर हैं । फसल को बारिश का इंतज़ार है । फूलों को भी अपने रंग बिखेरने के लिए बारिश चाहिए ।
बारिश में ही तन और मन भी भीगेगा ।
भीतर कहीं एक आग भी लगेगी ।
इस मौसम में बारिश चाहिए ।
गधेरे/श्रोत /नदियाँ सूखने के कगार पर हैं । फसल को बारिश का इंतज़ार है । फूलों को भी अपने रंग बिखेरने के लिए बारिश चाहिए ।
बारिश में ही तन और मन भी भीगेगा ।
भीतर कहीं एक आग भी लगेगी ।
रविवार, 10 अप्रैल 2011
शाम होते होते इतना थक जाता हूँ कि ब्लॉग पर बैठे-बैठे नींद आने लगती है।
कभी -कभी लगता है कि लिखने के लिए कुछ नहीं बचा । लेकिन फिर दिखाई देता है कि इतना बचा है कि अभी तो शुरू भी नहीं माना जा सकता ।
इस देश में भ्रष्ट्राचार के खिलाफ सरकार को हिलाने के लिए एक ही व्यक्ति काफी है बशर्ते कि वह खुद भ्रष्ट न हो । स्वार्थी न हो ।
भ्रष्ट्राचार की हद तो काफी पीछे छूट गई है । इस कीचड़ में देश बहुत आगे निकल आया है ।
जनता के पास नेताओं का विकल्प भी होना चाहिए ।क्यों कि कुरसी मिलते ही नेता की सोच ख़त्म हो जाती है । विवेक ख़त्म हो जाता है । या भ्रष्टाचार के बल पर विवेकहीन सत्ता पर काबिज हो जाते हैं ।
कभी -कभी लगता है कि लिखने के लिए कुछ नहीं बचा । लेकिन फिर दिखाई देता है कि इतना बचा है कि अभी तो शुरू भी नहीं माना जा सकता ।
इस देश में भ्रष्ट्राचार के खिलाफ सरकार को हिलाने के लिए एक ही व्यक्ति काफी है बशर्ते कि वह खुद भ्रष्ट न हो । स्वार्थी न हो ।
भ्रष्ट्राचार की हद तो काफी पीछे छूट गई है । इस कीचड़ में देश बहुत आगे निकल आया है ।
जनता के पास नेताओं का विकल्प भी होना चाहिए ।क्यों कि कुरसी मिलते ही नेता की सोच ख़त्म हो जाती है । विवेक ख़त्म हो जाता है । या भ्रष्टाचार के बल पर विवेकहीन सत्ता पर काबिज हो जाते हैं ।
मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011
शब्दों की माला
खेतों से गायब होने लगे हैं सरसों के बसंती फूल।
लेकिन जंगलों में मेहल, कनेर ,बुरांश ,पीहुली और भी कई तरह के फूल खिले हुए हैं । जंगलों में इस तैयारीको देख कर लगता है कोई परी इस धरती पर उतरने वाली है ।
या मेरी प्रेमिका ने यह सब सजा कर रखा है ।
बहर हाल यह कुछ भी हो , मैं तो मंत्र मुग्ध हो गया हूँ ।
शब्दों की माला गूँथ रहा हूँ । उसी के लिए
जिसने मेरे लिए जंगल सजाया ।
मुझे स्वप्न दिए । मुझे रंग दिए और प्रेम दिया।
जिसका कोई ओर न छोर
फूलों में रंग और सुगंध की तरह ही है जो मेरे भीतर ।
लेकिन जंगलों में मेहल, कनेर ,बुरांश ,पीहुली और भी कई तरह के फूल खिले हुए हैं । जंगलों में इस तैयारीको देख कर लगता है कोई परी इस धरती पर उतरने वाली है ।
या मेरी प्रेमिका ने यह सब सजा कर रखा है ।
बहर हाल यह कुछ भी हो , मैं तो मंत्र मुग्ध हो गया हूँ ।
शब्दों की माला गूँथ रहा हूँ । उसी के लिए
जिसने मेरे लिए जंगल सजाया ।
मुझे स्वप्न दिए । मुझे रंग दिए और प्रेम दिया।
जिसका कोई ओर न छोर
फूलों में रंग और सुगंध की तरह ही है जो मेरे भीतर ।
रविवार, 6 फ़रवरी 2011
महफ़िल
बहुत दिनों से शब्दों की महफ़िल में किसी का इंतज़ार था
या कि शब्दों का ही इंतज़ार था ।
किसी भी बहाने से नहीं आ रहे हैं शब्द। न फूलों के बहाने से , न प्रेमिकाओं के बहाने से , न भूख के बहाने से , न अत्याचार के बहाने से ।
महफ़िल सजी हुए है । एक तनहाई छाई हुई है । शब्द कहीं नहीं हैं ।
यह ख़ामोशी मेरे भीतर एक ताना बना बुन रही है ।
एक कथा या कविता ।
या कि शब्दों का ही इंतज़ार था ।
किसी भी बहाने से नहीं आ रहे हैं शब्द। न फूलों के बहाने से , न प्रेमिकाओं के बहाने से , न भूख के बहाने से , न अत्याचार के बहाने से ।
महफ़िल सजी हुए है । एक तनहाई छाई हुई है । शब्द कहीं नहीं हैं ।
यह ख़ामोशी मेरे भीतर एक ताना बना बुन रही है ।
एक कथा या कविता ।
गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011
गावं
आज घर पर ही था । कार्यालय में बैठकर कुछ काम निबटाये । पिछले कई दिनों से लगातार गावों के भ्रमण पर था ।
गावों को बहुत करीब से देखने का मौका मिला ।
गावं और पहाड़ -घाटियाँ मुझे बचपन से ही बहुत लुभाते हैं ।
संस्था के गठन के साथ ही पहाड़ के दूर दराज की जिंदगी को बहुत करीब से देखा । लोग बहुत कठिन जीवन जीते हैं ।
कठिन श्रम ! लेकिन कठिन श्रम के बाद भी आर्थिक रूप से काफी पीछे हैं । शिक्षा और जागरूकता का स्तर अभी बहुत पीछे है। आश्चर्य कि स्कूलों में लगभग सभी अध्यापक स्थानीय होते हैं। यानि सभी शिक्षक स्थानीय होने के नाते जिम्मेदार भी होने चाहिए । लेकिन ऐसा नहीं है। शिक्षा तो जैसे इन स्कूलों पर आकर थम जाती है । छात्रों का विकास यहीं से अवरुद्ध होना शुरू हो जाता है । एक गावं का परिचय वहां के बच्चे दे देते हैं । आप उनसे कुछ बोलो मत, कुछ पूछो मत. बस उनकी गतिविधियाँ देखते रहो ।
फिर भी पहाड़ के लोग बुद्धिमान , एकांत ,और शांत प्रिय लोग होते हैं ।
गावों को बहुत करीब से देखने का मौका मिला ।
गावं और पहाड़ -घाटियाँ मुझे बचपन से ही बहुत लुभाते हैं ।
संस्था के गठन के साथ ही पहाड़ के दूर दराज की जिंदगी को बहुत करीब से देखा । लोग बहुत कठिन जीवन जीते हैं ।
कठिन श्रम ! लेकिन कठिन श्रम के बाद भी आर्थिक रूप से काफी पीछे हैं । शिक्षा और जागरूकता का स्तर अभी बहुत पीछे है। आश्चर्य कि स्कूलों में लगभग सभी अध्यापक स्थानीय होते हैं। यानि सभी शिक्षक स्थानीय होने के नाते जिम्मेदार भी होने चाहिए । लेकिन ऐसा नहीं है। शिक्षा तो जैसे इन स्कूलों पर आकर थम जाती है । छात्रों का विकास यहीं से अवरुद्ध होना शुरू हो जाता है । एक गावं का परिचय वहां के बच्चे दे देते हैं । आप उनसे कुछ बोलो मत, कुछ पूछो मत. बस उनकी गतिविधियाँ देखते रहो ।
फिर भी पहाड़ के लोग बुद्धिमान , एकांत ,और शांत प्रिय लोग होते हैं ।
रविवार, 16 जनवरी 2011
सपनों का सच

कल दिनभर सपनों को सींचती रही बारिश,
कल दिन भर की बारिश के बाद एक खुशनुमा दिन ।
दिन धूप की किरणों के साथ चुपचाप खिसकता गया । मैं धूप में बैठा सपनों के ताने -बाने बुनता रहा । कुछ देखे हुए सपने ,और कुछ अनदेखे सपने ,देखे हुए सपनों के धागों से अनदेखे सपनों के चित्र बना रहा था ।
सतरंगी किरणें चुपचाप मेरे सपनों में रंग भर रही थी । मैं सपनों को आकार लेते हुए देख रहा था ।
मेरे सपनों को इंतज़ार था प्राणों का ,मुझे सपनों में प्राण डालने हैं । सपनों में प्राण तो हमें ही पिरोने होते हैं ।
सपने सच भी होते हैं ।
होते भी आये हैं । बिलकुल सच । जैसे देखे थे । तुमने, मैंने ,उसने ,हम सब ने ।
गुरुवार, 13 जनवरी 2011
प्रकृति
सुबह धूप देर से आयी । लेकिन बड़ी मजेदार ।
लेकिन मेरे पास वक़्त नहीं था कि मैं धूप के साथ कुछ देर खड़ा रह सकूँ ।कुछ देर बहती छलछलाती नदी के पास जाऊ ,कुछ देर मछलियों से बातें करूँ ।
और सुबह की ठण्ड भी बहुत तीखी थी लेकिन उसको भी महसूस करने का वक़्त मेरे पास नहीं था । मेरे पास सफ़ेद कुहरे के पास जाने का भी वक़्त नहीं था ।
लगता है कि मेरे केंद्र से प्रकृति हट गई है ,प्रकृति साहित्य के केंद्र से भी हट गई है । कविता के केंद्र से भी हट गई है ।
प्रकृति युद्ध के केंद्र में है ।
और युद्ध का नियंत्रण महाशक्तियों के हाथ में है ।
हर ओर तबाही
भयंकर विनाश । .........दूसरों के विनाश में ही महाशक्तियों का जीवन है ।अन्यथा वे कुछ नहीं
यह सब हमारे हाथ में नहीं । हमारे हाथ में तो सिर्फ लिखना है । बस कुछ अच्छा लिखा जाय ।
लेकिन मेरे पास वक़्त नहीं था कि मैं धूप के साथ कुछ देर खड़ा रह सकूँ ।कुछ देर बहती छलछलाती नदी के पास जाऊ ,कुछ देर मछलियों से बातें करूँ ।
और सुबह की ठण्ड भी बहुत तीखी थी लेकिन उसको भी महसूस करने का वक़्त मेरे पास नहीं था । मेरे पास सफ़ेद कुहरे के पास जाने का भी वक़्त नहीं था ।
लगता है कि मेरे केंद्र से प्रकृति हट गई है ,प्रकृति साहित्य के केंद्र से भी हट गई है । कविता के केंद्र से भी हट गई है ।
प्रकृति युद्ध के केंद्र में है ।
और युद्ध का नियंत्रण महाशक्तियों के हाथ में है ।
हर ओर तबाही
भयंकर विनाश । .........दूसरों के विनाश में ही महाशक्तियों का जीवन है ।अन्यथा वे कुछ नहीं
यह सब हमारे हाथ में नहीं । हमारे हाथ में तो सिर्फ लिखना है । बस कुछ अच्छा लिखा जाय ।
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