चुनाव प्रचार/प्रपंच जोरों पर है ।
लेकिन दिखाई दे रहा है कि अपना प्रतिनिधि चुनने के लिए जनता का विवेक नहीं जागा है । लोग तय नहीं कर पा रहे हैं कि किसे चुनें ?और क्यों चुनें ? अच्छे और बुरे तक को तय करने का विवेक नहीं है । धन की चकाचोंध में लोग यह मालूम करना भी भूल गए हैं कि इतना बेतहाशा धन आया कहाँ से ?प्रत्याशी की आय का श्रोत क्या है ? और यह प्रत्याशी इतनी विशाल धनराशि खर्च क्यों कर रहा है ? एक आम आदमी ने अपने जीवन में उतने सादे पन्ने नहीं देखे होंगे जितने नोट इन चुनावों में खर्च होते हैं । इन हालातों में तो लोकतंत्र /सत्ता न तो आम आदमी के हाथ में रहेगी और न ही आम आदमी के लिए । लोकतंत्र बाहुबलियों /धनबलियों /छलबलियों की गिरफ्त में आ जायगा । आम आदमी अन्याय और भ्रष्ट्राचार की मार सहेगा । वह लोकतंत्र में शक्तिविहीन होगा ।
धनबल ,बाहुबल,छलबल की चर्चा तो सुनी जा रही है लेकिन आत्मबल की आवाज कहीं नहीं सुनाई दे रही है । मतदाताओं को विवेक से निर्णय लेने की बात कहने के लिए कोई मध्यस्त प्रचारक नहीं है ।
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