गुरुवार, 1 मार्च 2012

jangal bavhao

 इधर कई दिनों से देख रहा हूँ कि जंगल बेतहाशा जल रहे हैं  . उससे भी भयंकर तथ्य है कि जलने दिए जा रहे हैं .  सब ख़ामोशी से देखते जा रहे हैं . गावं वाले निर्लिप्त भाव से जंगलों को जलता हुआ देख रहे हैं . हम अगर ग्लोबल वार्मिंग की बात को छोड़ दें तो भी इस आग से स्थानीय स्तर पर तात्कालिक हानियाँ तो गंभीर रूप से घातक हैं ही . सबसे बड़ा नुक्सान तो वन्य जीवों का है. जो कि बेमौत मारे जा रहे हैं पक्षियों के घोंसले अण्डों सहित  जल रहे हैं बाघ ,तेंदुए और अन्य जंगली जानवर  जंगल छोड़ कर बस्तियों की तरफ भाग रहे हैं . जंगलों से महत्वपूर्ण औषधियां जल कर राख हो रही हैं . जो कि विलुप्ति की कगार पर हैं . चींटियों की नस्लें खतरे मैं हैं . जंगलों से जंगली जानवरों का भोजन ख़त्म हो रहा है . और सबसे महत्वपूर्ण नुक्सान यह कि सतह से पानी ख़त्म हो रहा है . 

लेकिन फिर भी हर वर्ष जंगल जलाये जा रहे हैं .  आग को रोकने का क्या किसी के पास कोई इन्तेजाम नहीं है क्या ? 
या आग बुझाना नहीं चाहते ? या यह लीसा और लकड़ी माफियाओं ,जंगली जानवरों के तस्करों और ग्रामीणों की मिलीभगत से हो रहा है. अकेला साधन हीन  वन विभाग कुछ नहीं कर सकता . 
जैसे भी हो रहा है .गावों के भविष्य के लिए तो अच्छा संकेत नहीं है . गावों में सूखा बढेगा , फसल का उत्पादन प्रभावित होगा , रोजगार के अवसर प्रभावित होंगे और पलायन बढेगा , अंततः गावों का अस्तित्व ही खतरे में होगा . 
हर साल चातुर्मास में करोड़ों का पौंधा  रोपण होता है और मार्च आते-आते सब जलकर स्वाहा हो जाता है धरती हरी-भरी होगी कैसे ? 
 

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