रविवार, 16 जनवरी 2011

सपनों का सच


कल दिनभर सपनों को सींचती रही बारिश,
कल दिन भर की बारिश के बाद एक खुशनुमा दिन ।
दिन धूप की किरणों के साथ चुपचाप खिसकता गया । मैं धूप में बैठा सपनों के ताने -बाने बुनता रहा । कुछ देखे हुए सपने ,और कुछ अनदेखे सपने ,देखे हुए सपनों के धागों से अनदेखे सपनों के चित्र बना रहा था ।
सतरंगी किरणें चुपचाप मेरे सपनों में रंग भर रही थी । मैं सपनों को आकार लेते हुए देख रहा था ।


मेरे सपनों को इंतज़ार था प्राणों का ,मुझे सपनों में प्राण डालने हैं । सपनों में प्राण तो हमें ही पिरोने होते हैं ।

सपने सच भी होते हैं ।
होते भी आये हैं । बिलकुल सच । जैसे देखे थे । तुमने, मैंने ,उसने ,हम सब ने ।

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