शनिवार, 12 सितंबर 2009
यह सौंदर्य और स्वप्न
आज सुबह से ही मौसम साफ़ था । चटख धूप । दिन में गावं गया ।खेत भर आए हैं । और जल्द ही फसल कटनी आरम्भ हो जायगी । मन्दिर का निर्माण कार्य देखा । लौटते हुए घाटी के सौंदर्य को निहारता हुआ आया । यह सौंदर्य स्वप्नों के एक ऐसे संसार में ले जाता है जहाँ जाकर इस दुनिया और वर्तमान का कोई होश नहीं रहता । अपने अस्तित्व का भान नहीं रहता है.स्वप्न इस हरियाली में खेलते हुए गुजरे अतीत के , स्वप्न प्रेम के , स्वप्न वर्तमान के ,इस प्रकृति में एकाकार होकर खोने के । इन पहाडों में ये आँखें दूर तक का सफ़र कर लेती हैं . विचारों को एक विराट खुला आकाश मिल जाता है . इसी अस्तित्वहीनता के बीच शब्द आकार लेने लगते हैं और जब ध्यान टूटता है चेतना लौटती है तो बनती है एक कविता . लौटकर खाना खाया । फिर आकर अपने कम्प्यूटर पर बैठ गया । पी४ पोएट्री पर एक कविता पोस्ट की । बाज़ार नहीं गया ।शाम के खाने के बाद कुछ देर पिताजी के साथ बैठ कर मन्दिर निर्माण के सम्बन्ध में बातें की । और फिर आकर कम्प्यूटर पर बैठ गया । डायरी पोस्ट भी हो गई है । अब सोने के लिए जाना ही ठीक होगा
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