रविवार, 23 अगस्त 2009
झूम रही है रात
दिन का अधिकांश हिस्सा घर पर ही गुजरा । दोपहर अपने अकेलेपनऔर खामोशी के कारण बहुत उदास सी लगाती है . लगता है कि इन पहाड़ी बीहड़ों में कुछ ढूंढ रही है इतवार होने की वजह से बच्चे भी घर पर ही थे । गप्पों का भी एक अंतहीन सिलसिला है । इसलिए फालतू गप्पबाजी से बचने की कोशिश करता हूँ । दिन मैं एक चक्कर भूमियाँ मन्दिर गया । गणेशोत्सव में भाग लिया । अपनी कविताओं के लिए एक ब्लॉग बनाने की सोच रहा था । लेकिन नहीं बन पाया । नींद के मारे पलकें झुकी जा रही हैं । बाहर कीड़ों की सीटी बजाने की आवाज आ रही है । बहुत मधुर संगीत है । अंधेरे में इन कीटों के संगीत पर झूम रही है रात । रात की यह चहल पहल और संगीत मय वातावरण बहुत आकर्षित करता है । अब बैठा नहीं जायगा । रात कितनी ही खुबसूरत हो नींद सुला ही देती है ।
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