रविवार, 18 सितंबर 2011

पहाड़ और पलायन

आज दिन घर पर ही गुजरा ।
आँगन में कुछ काम किया । कुछ देर खेत में काम किया । असोज का महीना है । एक तरफ खेतों में अनाज तैयार खड़ा हैं दूसरी तरफ जंगलों में घास भी तैयार है ।
किसान इतने व्यस्त हैं कि उनके पास सांस लेने की भी फुर्सत नहीं है । लेकिन दूसरी तरफ महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि गावों में किसान दिन प्रति दिन कम होते जा रहे हैं । लोगों का रुझान खेती की ओर से हट रहा है । वे लोग बस किसी भी प्रकार खेती से छुटकारा पा कर कोई भी नौकरी कर लेना चाहते है। लोगों ने यह धारणा बना ली है कि पहाड़ों में खेती में अब भविष्य नहीं रहा । जिस गावं में भी जाता हूँ देखता हूँ कि गावों में खेत के खेत बंजर पड़े हैं । जो घर में हैं भी वे भी खेती के इच्छुक नहीं दिखाई देते । वे भी खेतों को बंजर छोड़ते जा रहे हैं । पशुधन कम होते जारहे हैं । लोग अपने मवेशियों को छोड़ कर उनसे पीछा छुड़ा रहे हैं । किसी समय में पहाड़ के किसानों की रीढ़ होने वाले जानवर आज पहाडो में यत्र तत्र आवारा घूम रहे हैं । कहीं वे बाघ का निवाला बन रहे हैं तो कहीं लोग उन्हें बुरी तरह पीट कर भगा रहे हैं । गाय किसी युग में माता के सामान हुआ करती होगी । आज तो एक बोझ है। मनुष्य की एक क्रूरता स्पष्ट रूप से सामने आ रही है ।
यहाँ से पलायन कर गया अधिकांश युवक कोई बेहतर स्थिति में नहीं दिखाई देते । यदि वे घर पर रह कर अपने लिए खेतों में रोजगार के नए अवसर पैदा करने कि कोशिश करते तो कहीं बेहतर स्थिति में होते ।

आज भी पहाड़ में खेती के स्वर्णिम अवसर हैं । आवश्यकता है तो मेहनत की। बुद्धि की । युक्ति की । कृषि में नए प्रयोग करने की । उद्यान में नए प्रयोग करने की । पानी और हवा में नए प्रयोग कर अवसर पैदा करने की ।
आज पलायन पहाड़ के वयोवृद्ध पुरुषों व महिलाओं के लिए एक त्रासदी बनकर सामने आ रही । वे घरों में एकाकी पड़ गए हैं । उनका अंतिम समय अपने बच्चों के साथ के बगैर गुजर रहा है। वे मौन होते जा रहे हैं । वे असहाय होते जा रहे हैं । वे अपने अंतिम समय को लेकर खुश नहीं हैं।

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