गुरुवार, 13 जनवरी 2011

प्रकृति

सुबह धूप देर से आयी । लेकिन बड़ी मजेदार ।
लेकिन मेरे पास वक़्त नहीं था कि मैं धूप के साथ कुछ देर खड़ा रह सकूँ ।कुछ देर बहती छलछलाती नदी के पास जाऊ ,कुछ देर मछलियों से बातें करूँ ।
और सुबह की ठण्ड भी बहुत तीखी थी लेकिन उसको भी महसूस करने का वक़्त मेरे पास नहीं था । मेरे पास सफ़ेद कुहरे के पास जाने का भी वक़्त नहीं था ।
लगता है कि मेरे केंद्र से प्रकृति हट गई है ,प्रकृति साहित्य के केंद्र से भी हट गई है । कविता के केंद्र से भी हट गई है ।


प्रकृति युद्ध के केंद्र में है ।
और युद्ध का नियंत्रण महाशक्तियों के हाथ में है ।
हर ओर तबाही
भयंकर विनाश । .........दूसरों के विनाश में ही महाशक्तियों का जीवन है ।अन्यथा वे कुछ नहीं
यह सब हमारे हाथ में नहीं । हमारे हाथ में तो सिर्फ लिखना है । बस कुछ अच्छा लिखा जाय ।

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