मंगलवार, 30 अगस्त 2011

कहीं कोई सपना नहीं था

कल रात देर तक नींद नहीं आयी ।
तो सोचा कि कुछ रुका हुआ काम निबटा लिया जाय । लेपटोप पर कवितायेँ टाईप की
काम करते- करते तीन बज गए थे । इस बीच रात में कई बार बाहर आया । रात के अँधेरे का सन्नाटा बहुत डरावना लग रहा था ।

पेड़ कैसे रहते होंगे इस भयानक सन्नाटे के बीच ।
किसी पत्ते के गिरने की आवाज भी डरा देती है । मैंने खूबसूरत चांदनी रातों को भी देखा है ।और उन रातों में खड़े पेड़ों की मस्ती और ख़ुशी भी ।
रात भर काम करता रहा, बरसों पुरानी कविताओं के बीच से होकर गुजरा । लगा कि मैं कहीं कुछ छोड़ आया था । जो अब भी वहीँ पर है । एक नदी आज भी वहीँ पर बह रही है । उसकी सायं -सायं कि आवाज अब भी अपनी ओर खींच रही है । आज भी कोई मुझसे मिलने की आतुरता में घर से निकलने का बहाना ढूंढ़ रही है ।

जैसे- तैसे मैंने कवितायेँ समेटी । घडी देखी तो साढ़े तीन बज चुके थे ।
सिर्फ डेढ़ घंटा सोया ।
लेकिन कहीं कोई सपना नहीं था ।

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