शनिवार, 10 सितंबर 2011

कविता और सत्ता

सुबह जल्दी उठ कर रोज के काम निबटा कर छत में घूमने गया । यह भी एक काम है ।आत्मसंवाद और
प्रकृति से संवाद रोजमर्रा का एक हिस्सा होता है

और यहीं जन्म लेती हैं कवितायेँ । हवा की मानिंद किताबों से होते हुए आप तक पहुंचती हैं .
आप लोग पढ़ें , न पढ़ें या क्यों पढ़ें । यह तो आप की बात है । मैं तो फूलों से रंग और सुगंध ,जंगलों से हरियाली और हवा ,पहाड़ों से ठंडी बयार ,नदी की छल-छल ,कल-कल की मधुर ध्वनियाँ और सायं -सायं की गर्जना ,तथा अपने मन की बात । सब कुछ मिलाकर आपकी ओर बढ़ा देता हूँ ।

पढ़ना आज एक समस्या हो गयी है । लोगों की दिनचर्या से पढ़ने के लिए समय ख़त्म हो गया है । और प्रेम करने के लिए भी । प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए भी । ह्रदय एक पम्पिंग मशीन बनकर रह गया है । व्यक्ति राजनीति का एक मोहरा मात्र रह गया है । उसकी अपनी चेतना की डोर जैसे राजनेताओं के हाथों में चली गयी हो ।
यहाँ साहित्य समाप्त हो जाता है , कविता समाप्त हो जाती है । संवेदना ख़त्म हो जाती है ।
एक सुगन्धित और खुबसूरत फूल का होना न होना कोई अर्थ नहीं रखता है ।
क्योंकि सत्ता तो लाशों के ढेर के ऊपर से हो कर गुजरती है । तो जाहिर सी बात है की राज नेता भी सत्ता के पीछे पीछे उसी तरह चलता जायगा ।
राजनेता के लिए सत्ता पाना और सत्ता में बने रहना ही अंतिम सत्य है । और यह रास्ता तानाशाही की ओर जाता है । तानाशाह आजकल क्या कर रहें हैं यह तो आप देख ही रहे हैं ।

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