सोमवार, 10 दिसंबर 2012

intajaar

ऊफ ! पांच महीने  का विराम .
इन पांच महीनों में समय काफी आगे निकल गया . और मैं वहीं का वहीँ  बैठा रहा जैसे कुछ लिखने के लिए  किसी का इंतज़ार कर रहा हूँ . और वह अभी भी नहीं आया  तो मुझे लगा क़ि अब आगे बढना चाहिए . अक्सर जब हम चल रहे होते हैं तो चलते चले जाने की धुमें  मीलों का सफ़र तय कर लेते हैं . अनावश्यक इंतज़ार हमें रोक लेता है थक कर विराम करें वह अलग बात है
वहां हम उर्जा लेते हैं . जबकि अनावश्यक इंतजार  हमें मानसिक तौर पर थका देता है। फिर हम सोचते हैं कि  फिजूल में रुके  ,चलते गए होते तो अभी तक काफी आगे निकल गए होते .

एक पल के लिए तो मुझे लगा कि  मैं लिखना ही भूल गया हूँ . लेकिन फिर लिखना शुरू किया तो लिखता चला गया .
समझ नहीं आया कि मैं इंतजार किसका कर रहा था . मैंने कई छोटी -छोटी चीजें  छोड़ दी , और वे काफी आगे निकल गई  . अब उन्हें लिखने का कोई औचत्य नहीं बनता . जो पीछे छूट गई उन्हें भी पकड़ने की कोशिश बेकार है। बस ! यहीं से आगे को लिखते चलो .

सोमवार, 7 मई 2012

हम हिंसक इतिहास से कब उबरेंगे ? 
हम यानी मानव समाज . वह चाहे किसी भी धर्म से हो . 
लगभग सभी धर्मों के मनुष्य हिंसक अतीत से पीड़ित रहे हैं . और वर्तमान भी भयानक रूप से हिंसक दौर का है . इस धरती में व्यापाक रूप से व्याप्त  हिंसा को रोकने में  सभी धर्मों के सारे ईश्वर लगभग असफल हो चुके हैं . अहिंसा के पुजारी गाँधी जी खुद हिंसा का शिकार हो गए ,ईसा मसीह को सूली पर टांग  दिया गया . और भी जिसने भी अहिंसा की बात कही वह खुद हिंसा का शिकार हुआ या हिंसक शासकों के निशाने पर रहा . 


हिंसा तो अंतिम व्यवहार है। चरम की परिणति  .
हिंसक बनाने वाले हिंसा करने वाले से  कहीं ज्यादा खतरनाक है .
हम आज धरती बचाने की बात कर रहे हैं . उससे पहले प्राणियों के प्राणों का संकट परमाणु हथियारों के रूप में सामने खड़ा है। हम सब हथियारों के दायरे में हैं . 
इसलिए दुनियां के नागरिको पहले इस धरती पर रहने वाले प्राणियों को बचाने के लिए सोचो .

शुक्रवार, 4 मई 2012

धर्म   और मीडिया एक भयानक गठजोड़ बनकर समाज को खेमों में बाँट रहे हैं . जिस चैनल पर भी देखो हर वक़्त कोई न कोई उपदेश देता दिखाई देता है। रूपया कमाने का इससे बेहतरीन धंधा और कोई नहीं हो सकता है . या तो फिर घोटाले हैं या फिर यही  धर्मं का धंधा .

प्रश्न है कि तमाम धर्मों के उपदेशों व्यापाक प्रसारण के बाद क्या समाज की स्थिति में  कोई सुधार  आया ? इन तथाकथित संतो उपदेशकों ने  समाज में फ़ैल रही हिंसा के लिए कोई बात कही या ये अपनी गद्दी माइक और लखपति करोड़ पति भक्तों की भीड़ छोड़ कर कभी समाज के सबसे नीचे वर्ग के दबे कुचले लोगों की झोपड़ियों तक भी गए ? उनके जीवन की दुरुहताओं /उनकी पीडाओं /उनके शोषण /उनकी भूख / उनकी शिक्षा /उनके जीवन स्तर को बेहतर बनाने के लिए  भी कभी काम किया ?
या सिर्फ शोषक वर्ग से धन ऐंठने के लिए /उन्हीं की तरह नीचे के वर्ग को बनाये रखने के लिए षड्यंत्र में  भागीदारी करते  हैं /  धनवान भक्तों का एक नया वर्ग खड़ा करते हैं .
यह धर्म के धंधे  का सबसे निकृष्ट  स्वरुप है कि
उपदेश दो धन कमाओ /चैनल वाले भी कमायें / बाकी  दुनियां को कौन पूछे ? समाज की विषमताओं को कौन पूछे / गरीब तो इनके कार्यक्रमों में घुस भी नहीं सकता है .

मंगलवार, 1 मई 2012

एक अच्छा मौसम !
वर्ना इस मई  एसा तो गर्मी से बुरा हाल हो जाता . और अभी तक रजाई नहीं छूटी  है . संतोष की बात यह है कि नदी में  अभी पानी सुखने की कगार पर नहीं पहुंचा . पीने के  पानी का संकट शायद  इस बार थोडा कम हो . मछलियाँ भी इस बार पानी की कमी की समस्या से नहीं जुझेंगी . गधेरों में  भी इस बार पर्याप्त पानी है। 
वैसे यह बारिश नवम्बर माह व फरवरी माह में होती तो तो फसल बहुत अच्छी होती लेकिन यह बारिश फसल बर्बाद करने के बाद हुई . यह सिलसिला पिछले कई बरसों से चला रहा है . सारी  मेहनत  के बाद अंत में किसान के पास बीज भी नहीं बचता  है . लेकिन स्थानीय किसान अपना फसल चक्र का समय बदलने को तैयार ही नहीं .सूखे के 
हालात हमने स्वयं  पैदा किये हुए हैं . हर बर्ष हमारे जंगल जल  रहे हैं . लेकिन ताज्जुब है की कोई ग्रामीण उस आग को बुझाने को नहीं जाता है। महत्वपूर्ण बनस्पतियां हर बर्ष जल कर राख हो रही हैं . पानी को रोकने वाली बनस्पति हर बर्ष जलाई जा रही है। नए पेड़ हर साल आग लगने के कारण नहीं पनप पा रहे हैं . जंगलों की सघनता कम हो रही है। हम  हर बर्ष अपने आस पास को तबाह करने के लिए स्वयं जिम्मेदार हैं .हमारी पैदावार घटी है। क्यों?  यह मान लिया गया है की जंगलों की आग बुझाना हमारा दायित्व नहीं है। हमें खुद को बचाने  के लिए भी मजदूरी /या धन चाहिए .

रविवार, 22 अप्रैल 2012

Abhinav Gatha: बड़ी देर से बैठा सोच रहा था कि आज शुरू कहाँ से कर...

Abhinav Gatha: बड़ी देर से बैठा सोच रहा था कि आज शुरू कहाँ से कर...: बड़ी देर से बैठा सोच रहा था कि आज शुरू कहाँ से करूँ  ?सूर्योदय से या फिर उससे पहले . उससे पहले का स्वप्न याद नहीं . हाँ इतना याद है कि ...
बड़ी देर से बैठा सोच रहा था कि आज शुरू कहाँ से करूँ  ?सूर्योदय से या फिर उससे पहले .
उससे पहले का स्वप्न याद नहीं . हाँ इतना याद है कि उमा ने पहली चाय के साथ सपने से जगाया और बोली स्वप्न से जागो और हकीकत की जमीन देखो . 
एक पल के लिए मुझे लगा की यह सच कह रही है . क्योंकि शारीरिक उडान तो सिर्फ स्वप्न मैं भरी जा सकती है . जमीन पर तो सिर्फ चला जा सकता है. लेकिन यह भी सच है कि स्वप्न हकीकत की जमीन देखने के लिए भी संकेत देते हैं
मैं चाय पीकर फिर रोजमर के कामों मैं उलझ गया .
मैंने बहुधा  देखा है कि  देखे गए सपनों का कुछ न कुछ संकेत होता है .   यानि एक प्रकार से पूर्वाभास .अवचेतन  आने वाली चीजों को पहले देख लेता है 
लेकिन इस सब के लिए आत्मबल भी मजबूत चाहिए . हम देखे हुए संकेतों को समझ सकें ,उनका विश्लेषण कर आने वाली घटनाओं को देख समझ सकें . 
आत्मबल की दुर्बलता के चलते ही अक्सर हम स्वप्न को भूल जाते हैं . या उन्हें नजरअंदाज कर देते हैं . या संकेत नहीं समझ पाते हैं. 

स्वप्न बहुत महत्वपूर्ण हैं . उन्हें देखो, समझो और जानो .

रविवार, 8 अप्रैल 2012

दिल्ली में हूँ- भीड़- भीड़- भीड़ जहाँ देखो वहां भीड़ !
गावं में तो भीड़ देखने को बाज जगह तो पांच -पांच किलोमीटर चल कर लोग दिखाई देते हैं . और यहाँ खाली जगह देखने को नहीं मिल रही है .
पूरा पहाड़ यहाँ आ चुका है वहां पर बेरोजगारी सबसे बड़ी समस्या है .लेकिन जीवन स्तर अच्छा है .वहां एक बड़ी प्रवृति है कि क्षेत्रीय स्तर पर  रोजगार कि संभावनाएं पैदा करने कि कोशिश नहीं की जाती है . युवा इंटर पास करके सीधे दिल्ली दौड़ पड़ते हैं . यहाँ की तड़क भड़क आकर्षित करती है .
यह भी सच है कि लोगों ने यहाँ आकर बहुत अंधाधुंध पैसे कमाए हैं .
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि पहाड़ में रोजगार कि संभावनाएं ख़त्म हो गयी हों . अपार संभावनाएं हैं. कृषि में बागवानी में ,लघु उद्योगों में , व्यापार में .आवश्यकता है तो सकारात्मक  नजरिये और मेहनत की.


दिल्ली बहुत अच्छा शहर है .किन्तु धनवानों के लिए . नेताओं के लिए .
आम आदमी के लिए नहीं .  आम आदमी तो नेताओं/पूंजीपतियों  के हिस्से का नरक भोग रहा है.

बुधवार, 14 मार्च 2012

फूल दे पैलाग!  फूल देई छम्मा  देई .
एक बहुत ही ख़ुशी का त्यौहार . छोटे -छोटे बच्चे आते हैं घर की देहरी मैं फूल रखते हैं और बदले मैं उन्हें चावल दिए जाते हैं . बच्चों का समूह गावं के हर घर में जाता है . नवजात बच्चों के लिए एक अलग नई टोकरी ले कर जाते हैं . बच्चे पहले दिन से ही जंगलों से तरह -तरह के फूल तोड़ कर लाते हैं .बच्चे बहुत खुश दिखाई देते हैं 

 और घर की देहरी में बिखरे फूल घर को भी ख़ुशी दे जाते हैं .

आज त्यौहार मनाया .

सोमवार, 5 मार्च 2012

Abhinav Gatha: सुबह का उगता सूरज  दिन की कथा के शीर्षक की तरह है...

Abhinav Gatha: सुबह का उगता सूरज दिन की कथा के शीर्षक की तरह है...: सुबह का उगता सूरज दिन की कथा के शीर्षक की तरह है . इसलिए जरुरी है कि सुबह अच्छी हो . आशावादी हो दिन की कथा का शीर्षक . एक सुखद संगीत प...
सुबह का उगता सूरज  दिन की कथा के शीर्षक की तरह है .
इसलिए जरुरी है कि सुबह अच्छी हो . आशावादी हो दिन की कथा का शीर्षक .

एक सुखद संगीत पूरे दिन मन में गूंजता  रहे .

सपने हों आँखों में .
अंतर्मन में हो प्यास प्रेम की .

लेकिन यह सब होने के लिए क्या हम अपने चारों ओर के मानवीय और पर्यावरणीय वातावरण के प्रति संवेदनशील हैं?
हमने सहनशीलता खो दी है . धैर्य खो दिया है और दूसरों के लिए जीवन दूभर बनाते जा रहे हैं .दूसरों में वे सब जो प्रकृति के जीव हैं .जो प्राण हैं . उनमें स्वयं हम भी हैं . प्रकृति के साथ हमारा व्यवहार बहुत ही अमर्यादित होता जा रहा है.

हर क्षण धरती पर फटने वाले बमों / परमाणु युद्धों के इस दौर में  प्राकृतिक हितों की बात करना बेमानी है. महाशक्तियां तो  सब कुछ ख़त्म कर देना चाहती हैं .खुद को भी .

फिर भी एक चींटी की तरह  प्रयास तो किया जा सकता है . कि धरती में जीवन सभी के लिए  सुगम बने .
 


 

गुरुवार, 1 मार्च 2012

jangal bavhao

 इधर कई दिनों से देख रहा हूँ कि जंगल बेतहाशा जल रहे हैं  . उससे भी भयंकर तथ्य है कि जलने दिए जा रहे हैं .  सब ख़ामोशी से देखते जा रहे हैं . गावं वाले निर्लिप्त भाव से जंगलों को जलता हुआ देख रहे हैं . हम अगर ग्लोबल वार्मिंग की बात को छोड़ दें तो भी इस आग से स्थानीय स्तर पर तात्कालिक हानियाँ तो गंभीर रूप से घातक हैं ही . सबसे बड़ा नुक्सान तो वन्य जीवों का है. जो कि बेमौत मारे जा रहे हैं पक्षियों के घोंसले अण्डों सहित  जल रहे हैं बाघ ,तेंदुए और अन्य जंगली जानवर  जंगल छोड़ कर बस्तियों की तरफ भाग रहे हैं . जंगलों से महत्वपूर्ण औषधियां जल कर राख हो रही हैं . जो कि विलुप्ति की कगार पर हैं . चींटियों की नस्लें खतरे मैं हैं . जंगलों से जंगली जानवरों का भोजन ख़त्म हो रहा है . और सबसे महत्वपूर्ण नुक्सान यह कि सतह से पानी ख़त्म हो रहा है . 

लेकिन फिर भी हर वर्ष जंगल जलाये जा रहे हैं .  आग को रोकने का क्या किसी के पास कोई इन्तेजाम नहीं है क्या ? 
या आग बुझाना नहीं चाहते ? या यह लीसा और लकड़ी माफियाओं ,जंगली जानवरों के तस्करों और ग्रामीणों की मिलीभगत से हो रहा है. अकेला साधन हीन  वन विभाग कुछ नहीं कर सकता . 
जैसे भी हो रहा है .गावों के भविष्य के लिए तो अच्छा संकेत नहीं है . गावों में सूखा बढेगा , फसल का उत्पादन प्रभावित होगा , रोजगार के अवसर प्रभावित होंगे और पलायन बढेगा , अंततः गावों का अस्तित्व ही खतरे में होगा . 
हर साल चातुर्मास में करोड़ों का पौंधा  रोपण होता है और मार्च आते-आते सब जलकर स्वाहा हो जाता है धरती हरी-भरी होगी कैसे ? 
 

बुधवार, 25 जनवरी 2012

कभी  कभी दिन की शुरुआत ही खराब होती है . वह पूरा दिन ही अपनी पटरी से उतर जाता है . 
अपने कार्यक्रम मैं अनावश्यक तबदीली नहीं करनी चाहिए . यह सब इसलिए लिख रहा हूँ कि आज पूरा दिन अव्यस्था की भेंट चढ़ गया . दिन भर परेशान रहा सो अलग . खैर छोडो यह सब . 
चुनाव प्रचार ने दिमाग खराब कर रखा है . लोग घेर लेते हैं कि क्या करें ? 
मैं क्या कहूँ ? कि किसे वोट करें और किसे न करें . यह लोगों का अपना अधिकार क्षेत्र है . मैं तो इतना ही कहूँगा कि जो योग्य हो उसे वोट करें . खुद बिकें नहीं . अपने विवेक का प्रयोग करें . यही समय है जब हम पांच सालों के लिए लोक तंत्र  की  व्यस्था किसी को सौंपते है .
 सुबह एक बार लग रहा था कि आज बारिश होगी . लेकिन दिन में बादल छंट गए . और इस ठण्ड में बारिश का आनंद लेने से वंचित रह गया . शाम ठण्ड बढ़ गयी . अंगीठी जलाई .आग ताप कर ठण्ड दूर की.
बारिश जम कर होनी चाहिए थी . लेकिन नहीं हुई यह चिंता का विषय है . इस समय बारिश का न होना गर्मियों में पानी का संकट पैदा कर देगा . देख रहा हूँ कि गधेरों से पानी गायब हो गया है .

मंगलवार, 24 जनवरी 2012

चुनाव चर्चा

चुनाव प्रचार/प्रपंच जोरों पर है ।
लेकिन दिखाई दे रहा है कि अपना प्रतिनिधि चुनने के लिए जनता का विवेक नहीं जागा है । लोग तय नहीं कर पा रहे हैं कि किसे चुनें ?और क्यों चुनें ? अच्छे और बुरे तक को तय करने का विवेक नहीं है । धन की चकाचोंध में लोग यह मालूम करना भी भूल गए हैं कि इतना बेतहाशा धन आया कहाँ से ?प्रत्याशी की आय का श्रोत क्या है ? और यह प्रत्याशी इतनी विशाल धनराशि खर्च क्यों कर रहा है ? एक आम आदमी ने अपने जीवन में उतने सादे पन्ने नहीं देखे होंगे जितने नोट इन चुनावों में खर्च होते हैं । इन हालातों में तो लोकतंत्र /सत्ता न तो आम आदमी के हाथ में रहेगी और न ही आम आदमी के लिए । लोकतंत्र बाहुबलियों /धनबलियों /छलबलियों की गिरफ्त में आ जायगा । आम आदमी अन्याय और भ्रष्ट्राचार की मार सहेगा । वह लोकतंत्र में शक्तिविहीन होगा ।
धनबल ,बाहुबल,छलबल की चर्चा तो सुनी जा रही है लेकिन आत्मबल की आवाज कहीं नहीं सुनाई दे रही है । मतदाताओं को विवेक से निर्णय लेने की बात कहने के लिए कोई मध्यस्त प्रचारक नहीं है ।

  विश्व में युद्ध थमने का नाम नहीं ले रहे।  रूस - यूक्रेन/नाटो  , हमास -  इज़राइल , हिज़्बुल्ला - इज़राईल, ईरान -इज़राईल  के सर्वनाशी युद्धों के...