रविवार, 5 दिसंबर 2010

कुछ लिखना चाहिए

अचानक ठण्ड बढ़ गई है । लगता है कि शीत लहर शुरू हो गई है ।
दिन यूँ ही बीता । गावं की तरफ गया । धूप थी लेकिन ठण्ड के कारण महसूस नहीं हो रही थी ।
इस बार वारिश हुई तो सीधे बरफ गिरेगी ।
बर्फ के साथ गिरेंगी यादें ।
सुबह उमा के हाथों की पहली चाय और फिर अखबार के साथ दिन की शुरुआत की । कविताओं में खोने की सोच रहा था ,खोया ,लेकिन कविताओं में नहीं , बरफीली पहाड़ियों में । ठंडी हवाओं में । हरे भरे जंगलों में ।
लौटा तो लगा कि खाली लौट आया । एक शून्य मेरे भीतर था ।
जिसमें कहीं कोई शब्द नहीं था ,
कोई आवाज नहीं थी ,बिलकुल निः शब्द ।


लौटने के बाद मैंने और उमा ने साथ चाय पी । अच्छा लगा। शून्य में एक दस्तक ।
द्वार खोलो शब्द भीतर आना चाहते हैं ।
मुझे लगा कि आज तो कुछ लिखना ही होगा ।
सांझ ढल गई ठण्ड ने फिर आ घेरा । सारे पक्षी अपने अपने घोंसलों में लोट आए हैं । इस मोह ने एक शून्य को तोडा
और मैं फिर शब्दों के बीच आ बैठा । सोचा कि कुछ लिखना चाहिए ।

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