रविवार, 20 सितंबर 2009

आंखों में रंग

कोई और काम नहीं था सिवाय घर देखने के । सुबह उमा के साथ धान मानंने खेत में गया ,खेतों में काम करना मेरे लिए काफी आनंददायी काम है । खेतों में मैं प्रकृति के करीब होता हूँ पौंधों और मिट्टी से बातें कर सकता हूँ । हवा को सुन सकता हूँ । अपनी आंखों मैं भर सकता हूँ रंग पूरी प्रकृति के । रच सकता हूँ कोई तस्वीर मन के भीतर ।
खेत से लौटकर मैं सीधे अपने कम्प्यूटर कक्ष मैं आ गया । कुछ फाइलें चेक की । उमा मुझे कुछ घर के काम का निर्देश देकर फ़िर घास के लिए चली गई । मुझे उसके लौटने तक दिन के खाने की सारी तैयारी पूरी करके रखनी थी । खाना खा कर थोडी देर आराम करने के बाद वह फ़िर घास के लिए निकल गई . वह शाम तक बुरी तरह थक चुकी होती है । पहाड़ में औरतें बहुत मेहनत करती हैं । पूरे घर का बोझ उनके कन्धों पर टिका होता है । और ८०% आदमियों का भी । क्योंकि आदमी बाज़ार से शाम को दारु के नशे में धुत्त होकर घर पहुंचता है । दिनभर की थकी औरत को उसकी गालियाँ ,मार ,ताने और उसकी बुरी हालत को भी झेलना होता है ।

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