बुधवार, 22 जनवरी 2014

 नमस्कार,
  उत्तरायणी का  त्यौहार निकल गया , और मैं लिखने के प्रति उदासीन बना रहा। जबकि मुझे इस बात का बेहद अफ़सोस है कि मैं कुछ नहीं लिख पाया।  खैर !मौसम बेहद रंगीन हो रहा है. प्रकृति का और चुनाव का।
नए -नए मुखोटे पहन कर लोग  मैदान में उतर रहे हैं लुभावने ,फूलों की तरह कोमल और सुंदर रंगों वाले ,
लोग वही  हैं लेकिन मुखोटे बदल गए हैं।वादे बदल गए  हैं .
अफ़सोस ! सभी के वादों से भूख के लोग गायब हैं
सभी का एक ही नारा है कि बस ! हमें एक बार कुर्सी तक पहुंचा दो।

 पिछले दिनों के आंदलनों से एक बात सामने आयी कि सत्ता सामाजिक न्याय की बात नहीं सुनना चाहती है
सत्ता में बैठे लोग अपनी सत्ता और अपनी दौलत के दम्भ में आम जन की आवाज को दबाने के लिए कितने नीचे उतर जायंगे ,सत्ता का कितना घृणित उपयोग करेंगे ,इसकी कोई सीमा नहीं है. अहिंसा इनके लिए कोई मायने नहीं रखती।

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