सोमवार, 7 मई 2012

हम हिंसक इतिहास से कब उबरेंगे ? 
हम यानी मानव समाज . वह चाहे किसी भी धर्म से हो . 
लगभग सभी धर्मों के मनुष्य हिंसक अतीत से पीड़ित रहे हैं . और वर्तमान भी भयानक रूप से हिंसक दौर का है . इस धरती में व्यापाक रूप से व्याप्त  हिंसा को रोकने में  सभी धर्मों के सारे ईश्वर लगभग असफल हो चुके हैं . अहिंसा के पुजारी गाँधी जी खुद हिंसा का शिकार हो गए ,ईसा मसीह को सूली पर टांग  दिया गया . और भी जिसने भी अहिंसा की बात कही वह खुद हिंसा का शिकार हुआ या हिंसक शासकों के निशाने पर रहा . 


हिंसा तो अंतिम व्यवहार है। चरम की परिणति  .
हिंसक बनाने वाले हिंसा करने वाले से  कहीं ज्यादा खतरनाक है .
हम आज धरती बचाने की बात कर रहे हैं . उससे पहले प्राणियों के प्राणों का संकट परमाणु हथियारों के रूप में सामने खड़ा है। हम सब हथियारों के दायरे में हैं . 
इसलिए दुनियां के नागरिको पहले इस धरती पर रहने वाले प्राणियों को बचाने के लिए सोचो .

शुक्रवार, 4 मई 2012

धर्म   और मीडिया एक भयानक गठजोड़ बनकर समाज को खेमों में बाँट रहे हैं . जिस चैनल पर भी देखो हर वक़्त कोई न कोई उपदेश देता दिखाई देता है। रूपया कमाने का इससे बेहतरीन धंधा और कोई नहीं हो सकता है . या तो फिर घोटाले हैं या फिर यही  धर्मं का धंधा .

प्रश्न है कि तमाम धर्मों के उपदेशों व्यापाक प्रसारण के बाद क्या समाज की स्थिति में  कोई सुधार  आया ? इन तथाकथित संतो उपदेशकों ने  समाज में फ़ैल रही हिंसा के लिए कोई बात कही या ये अपनी गद्दी माइक और लखपति करोड़ पति भक्तों की भीड़ छोड़ कर कभी समाज के सबसे नीचे वर्ग के दबे कुचले लोगों की झोपड़ियों तक भी गए ? उनके जीवन की दुरुहताओं /उनकी पीडाओं /उनके शोषण /उनकी भूख / उनकी शिक्षा /उनके जीवन स्तर को बेहतर बनाने के लिए  भी कभी काम किया ?
या सिर्फ शोषक वर्ग से धन ऐंठने के लिए /उन्हीं की तरह नीचे के वर्ग को बनाये रखने के लिए षड्यंत्र में  भागीदारी करते  हैं /  धनवान भक्तों का एक नया वर्ग खड़ा करते हैं .
यह धर्म के धंधे  का सबसे निकृष्ट  स्वरुप है कि
उपदेश दो धन कमाओ /चैनल वाले भी कमायें / बाकी  दुनियां को कौन पूछे ? समाज की विषमताओं को कौन पूछे / गरीब तो इनके कार्यक्रमों में घुस भी नहीं सकता है .

मंगलवार, 1 मई 2012

एक अच्छा मौसम !
वर्ना इस मई  एसा तो गर्मी से बुरा हाल हो जाता . और अभी तक रजाई नहीं छूटी  है . संतोष की बात यह है कि नदी में  अभी पानी सुखने की कगार पर नहीं पहुंचा . पीने के  पानी का संकट शायद  इस बार थोडा कम हो . मछलियाँ भी इस बार पानी की कमी की समस्या से नहीं जुझेंगी . गधेरों में  भी इस बार पर्याप्त पानी है। 
वैसे यह बारिश नवम्बर माह व फरवरी माह में होती तो तो फसल बहुत अच्छी होती लेकिन यह बारिश फसल बर्बाद करने के बाद हुई . यह सिलसिला पिछले कई बरसों से चला रहा है . सारी  मेहनत  के बाद अंत में किसान के पास बीज भी नहीं बचता  है . लेकिन स्थानीय किसान अपना फसल चक्र का समय बदलने को तैयार ही नहीं .सूखे के 
हालात हमने स्वयं  पैदा किये हुए हैं . हर बर्ष हमारे जंगल जल  रहे हैं . लेकिन ताज्जुब है की कोई ग्रामीण उस आग को बुझाने को नहीं जाता है। महत्वपूर्ण बनस्पतियां हर बर्ष जल कर राख हो रही हैं . पानी को रोकने वाली बनस्पति हर बर्ष जलाई जा रही है। नए पेड़ हर साल आग लगने के कारण नहीं पनप पा रहे हैं . जंगलों की सघनता कम हो रही है। हम  हर बर्ष अपने आस पास को तबाह करने के लिए स्वयं जिम्मेदार हैं .हमारी पैदावार घटी है। क्यों?  यह मान लिया गया है की जंगलों की आग बुझाना हमारा दायित्व नहीं है। हमें खुद को बचाने  के लिए भी मजदूरी /या धन चाहिए .

  विश्व में युद्ध थमने का नाम नहीं ले रहे।  रूस - यूक्रेन/नाटो  , हमास -  इज़राइल , हिज़्बुल्ला - इज़राईल, ईरान -इज़राईल  के सर्वनाशी युद्धों के...