रविवार, 6 सितंबर 2009

एक धुएँ का शहर

आज सुबह ही दिल्ली से लौटा हूँ । नानी जी के पीपल पानी पर गया था । आधी दिल्ली तो रहने के लिए सबसे खतरनाक स्थान है ।ऐसी जगहों पर जो लोग अस्थाई तौर पर या कम वेतन पर काम कर रहे हैं उन्हें वापस अपने गावं या गावं के नजदीकी शहर मैं जाकर काम तलाश करना कर अपनी रोजी रोटी चलानी चाहिए । या स्वरोजगार ,खेती आदि करनी चाहिए क्योंकि वहाँ सबकुछ प्रदुषण मुक्त तो होगा । और कम खर्च में काम चल जायगा लेकिन दिल्ली तो लोगों का समंदर बनता जा रहा है ।भीड़ -अथाह भीड़ बेशुमार दौलत कमा कर भी लोगों के चेहरों पर सुकून नहीं दिखाई देता -बेचैनी का/दौड़ा-भागी का एक अंतहीन सिलसिला । इसी अशांति के कारण लोगों की सहनशीलता ख़त्म होती जा रही है । वहाँ गलियों में हवा के लिए जगह नहीं है । धूप के लिए जगह नहीं है । और रहना एक विवशता है । पेड़ भी उगना नहीं चाहते हैं । उनके लिए उगना भी एक विवशता है ।चारों ओर धुआं ही धुआं और शोर ही शोर ।
दिल्ली जाकर तो लगभग सभी मित्रों के यहाँ जाना होता है । रात बस में नींद नहीं आई रात भर बस फुटबाल की तरह उछालती हुई लाई। नाश्ता करके सो गया । उमा ने खाने के लिए जगाया । तरो-ताजा होकर खाना खाया फिर कंप्यूटर पर बैठा । मेल देखी बाद में बाज़ार को निकल गया मित्रों से मिला जगदिश पाण्डेय , राजेंदर सिंह बिष्ट ,चंदू भाई ,महेश वर्मा ,मुरली मनोहर ,नरेश कुमार , विपिन शर्मा आदि कई मित्र गण मिले घर आते आते काफी अँधेरा हो चुका था ।

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