नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर साम्प्रदायिकता का भयानक खेल खेला । जिससे मुस्लिम समाज आहत है । यह गोधरा कांड से भी कहीं ज्यादा गहरी चोट दे गया । आखिर यह उपवास क्यों ? मुझे इस उपवास का कोई विशेष मकसद नहीं दिखता । सद्भावना के उपवास में मोदी ने मुस्लिम टोपी पहनने से इनकार कर मुसलमानों के प्रति अपनी भावना जाहिर कर दी । साथ ही हिन्दू धर्म की वसुधैव कुटुम्बकम और दूसरे धर्मों के प्रति समान रूप से सम्मान की भावना भी आहत हुई है ।
गाँधी तो सदियों में एक होंगे । वह भी घोर तपस्या और संघर्ष के बाद ।
दूसरी बात समझ नहीं आ रही है कि इस सरकार के सलाहकारों को क्या हो गया ? क्या वे विपक्ष के साथ है ?
ग़रीबी रेखा पर कांग्रेस सरकार का आंकड़ा बेहद शर्मनाक है !क्या सरकार के इन मंत्रियों को मालूम है कि आम आदमी के एक समय का सादा खाना कम से कम ३० रुपये में बनता है दो समय का साठ रुपये में ।
यह आकंडा तो सरकार के किसी सलाहकार और मत्री ने मिल कर किसी पञ्च तारा होटल में बैठकर ही बनाया होगा । गरीब को और महंगाई को देख कर नहीं । ग़रीबी और बदहाली को देखना है तो गावों में देखो , महानगरों की अँधेरी तंग गलियों में जाकर देखो । तब आकंडा पेश करो ।
एक तथ्य तो स्पष्ट है कि सरकार के मंत्री गण ही विपक्ष को हल्ला करने का मौका देरहे हैं। क्यों ?क्या उन्हें माननीय मनमोहन सिंह जी बर्दाश्त नहीं हो रहे हैं ?या सरकार की दूसरी पारी हजम नहीं हो रही ?
यदि कोंग्रेस विवेक से निर्णय ले तो सरकार अवश्य तीसरी बार भी कांग्रेस की ही बनेगी ।
शुक्रवार, 23 सितंबर 2011
रविवार, 18 सितंबर 2011
पहाड़ और पलायन
आज दिन घर पर ही गुजरा ।
आँगन में कुछ काम किया । कुछ देर खेत में काम किया । असोज का महीना है । एक तरफ खेतों में अनाज तैयार खड़ा हैं दूसरी तरफ जंगलों में घास भी तैयार है ।
किसान इतने व्यस्त हैं कि उनके पास सांस लेने की भी फुर्सत नहीं है । लेकिन दूसरी तरफ महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि गावों में किसान दिन प्रति दिन कम होते जा रहे हैं । लोगों का रुझान खेती की ओर से हट रहा है । वे लोग बस किसी भी प्रकार खेती से छुटकारा पा कर कोई भी नौकरी कर लेना चाहते है। लोगों ने यह धारणा बना ली है कि पहाड़ों में खेती में अब भविष्य नहीं रहा । जिस गावं में भी जाता हूँ देखता हूँ कि गावों में खेत के खेत बंजर पड़े हैं । जो घर में हैं भी वे भी खेती के इच्छुक नहीं दिखाई देते । वे भी खेतों को बंजर छोड़ते जा रहे हैं । पशुधन कम होते जारहे हैं । लोग अपने मवेशियों को छोड़ कर उनसे पीछा छुड़ा रहे हैं । किसी समय में पहाड़ के किसानों की रीढ़ होने वाले जानवर आज पहाडो में यत्र तत्र आवारा घूम रहे हैं । कहीं वे बाघ का निवाला बन रहे हैं तो कहीं लोग उन्हें बुरी तरह पीट कर भगा रहे हैं । गाय किसी युग में माता के सामान हुआ करती होगी । आज तो एक बोझ है। मनुष्य की एक क्रूरता स्पष्ट रूप से सामने आ रही है ।
यहाँ से पलायन कर गया अधिकांश युवक कोई बेहतर स्थिति में नहीं दिखाई देते । यदि वे घर पर रह कर अपने लिए खेतों में रोजगार के नए अवसर पैदा करने कि कोशिश करते तो कहीं बेहतर स्थिति में होते ।
आज भी पहाड़ में खेती के स्वर्णिम अवसर हैं । आवश्यकता है तो मेहनत की। बुद्धि की । युक्ति की । कृषि में नए प्रयोग करने की । उद्यान में नए प्रयोग करने की । पानी और हवा में नए प्रयोग कर अवसर पैदा करने की ।
आज पलायन पहाड़ के वयोवृद्ध पुरुषों व महिलाओं के लिए एक त्रासदी बनकर सामने आ रही । वे घरों में एकाकी पड़ गए हैं । उनका अंतिम समय अपने बच्चों के साथ के बगैर गुजर रहा है। वे मौन होते जा रहे हैं । वे असहाय होते जा रहे हैं । वे अपने अंतिम समय को लेकर खुश नहीं हैं।
आँगन में कुछ काम किया । कुछ देर खेत में काम किया । असोज का महीना है । एक तरफ खेतों में अनाज तैयार खड़ा हैं दूसरी तरफ जंगलों में घास भी तैयार है ।
किसान इतने व्यस्त हैं कि उनके पास सांस लेने की भी फुर्सत नहीं है । लेकिन दूसरी तरफ महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि गावों में किसान दिन प्रति दिन कम होते जा रहे हैं । लोगों का रुझान खेती की ओर से हट रहा है । वे लोग बस किसी भी प्रकार खेती से छुटकारा पा कर कोई भी नौकरी कर लेना चाहते है। लोगों ने यह धारणा बना ली है कि पहाड़ों में खेती में अब भविष्य नहीं रहा । जिस गावं में भी जाता हूँ देखता हूँ कि गावों में खेत के खेत बंजर पड़े हैं । जो घर में हैं भी वे भी खेती के इच्छुक नहीं दिखाई देते । वे भी खेतों को बंजर छोड़ते जा रहे हैं । पशुधन कम होते जारहे हैं । लोग अपने मवेशियों को छोड़ कर उनसे पीछा छुड़ा रहे हैं । किसी समय में पहाड़ के किसानों की रीढ़ होने वाले जानवर आज पहाडो में यत्र तत्र आवारा घूम रहे हैं । कहीं वे बाघ का निवाला बन रहे हैं तो कहीं लोग उन्हें बुरी तरह पीट कर भगा रहे हैं । गाय किसी युग में माता के सामान हुआ करती होगी । आज तो एक बोझ है। मनुष्य की एक क्रूरता स्पष्ट रूप से सामने आ रही है ।
यहाँ से पलायन कर गया अधिकांश युवक कोई बेहतर स्थिति में नहीं दिखाई देते । यदि वे घर पर रह कर अपने लिए खेतों में रोजगार के नए अवसर पैदा करने कि कोशिश करते तो कहीं बेहतर स्थिति में होते ।
आज भी पहाड़ में खेती के स्वर्णिम अवसर हैं । आवश्यकता है तो मेहनत की। बुद्धि की । युक्ति की । कृषि में नए प्रयोग करने की । उद्यान में नए प्रयोग करने की । पानी और हवा में नए प्रयोग कर अवसर पैदा करने की ।
आज पलायन पहाड़ के वयोवृद्ध पुरुषों व महिलाओं के लिए एक त्रासदी बनकर सामने आ रही । वे घरों में एकाकी पड़ गए हैं । उनका अंतिम समय अपने बच्चों के साथ के बगैर गुजर रहा है। वे मौन होते जा रहे हैं । वे असहाय होते जा रहे हैं । वे अपने अंतिम समय को लेकर खुश नहीं हैं।
बुधवार, 14 सितंबर 2011
गुलाम मानसिकता से भी आजादी चाहिए .
हिंदी दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएं ।
उन सभी नेताओं को जो हिंदी या अन्य भारतीय जनों की प्रांतीय भाषाओँ के मतदाताओं के मतों से जीत कर संसद पहुंचते हैं । किन्तु वहां जाकर अंग्रेजी में अपना भाषण देते हैं ।
जब वोट मांगते हैं तब उन्हें हिंदी या अन्य भारतीय/प्रांतीय भाषा बोलनी आती है । किन्तु संसद में पहुंचते ही वे सबसे पहले अपनी भाषा बदलते हैं । यह जनता का सरासर अपमान है । राष्ट्र का अपमान है ,हिंदी का अपमान है । हिंदी भाषियों का अपमान है । जनता को अधिकार है कि वे संसद में अपनी भाषा का तिरष्कार करने वाले सांसदों को भी बदलें .हिंदी के हर साहित्यकार का दायित्व है कि वह प्रधानमंत्री को राष्ट्र भाषा के प्रयोग के लियें लिखें । कम से कम भारत माता के मंदिर में तो राष्ट्र भाषा को प्राथिमकता मिले । वे सांसद जो हिंदी नहीं जानते हैं .क्या अपनी क्षेत्रीय भाषा भी नहीं जानते हैं ।
इस गुलाम मानसिकता से भी आजाद होना ही होगा ।
उन सभी नेताओं को जो हिंदी या अन्य भारतीय जनों की प्रांतीय भाषाओँ के मतदाताओं के मतों से जीत कर संसद पहुंचते हैं । किन्तु वहां जाकर अंग्रेजी में अपना भाषण देते हैं ।
जब वोट मांगते हैं तब उन्हें हिंदी या अन्य भारतीय/प्रांतीय भाषा बोलनी आती है । किन्तु संसद में पहुंचते ही वे सबसे पहले अपनी भाषा बदलते हैं । यह जनता का सरासर अपमान है । राष्ट्र का अपमान है ,हिंदी का अपमान है । हिंदी भाषियों का अपमान है । जनता को अधिकार है कि वे संसद में अपनी भाषा का तिरष्कार करने वाले सांसदों को भी बदलें .हिंदी के हर साहित्यकार का दायित्व है कि वह प्रधानमंत्री को राष्ट्र भाषा के प्रयोग के लियें लिखें । कम से कम भारत माता के मंदिर में तो राष्ट्र भाषा को प्राथिमकता मिले । वे सांसद जो हिंदी नहीं जानते हैं .क्या अपनी क्षेत्रीय भाषा भी नहीं जानते हैं ।
इस गुलाम मानसिकता से भी आजाद होना ही होगा ।
शनिवार, 10 सितंबर 2011
कविता और सत्ता
सुबह जल्दी उठ कर रोज के काम निबटा कर छत में घूमने गया । यह भी एक काम है ।आत्मसंवाद और
प्रकृति से संवाद रोजमर्रा का एक हिस्सा होता है।
और यहीं जन्म लेती हैं कवितायेँ । हवा की मानिंद किताबों से होते हुए आप तक पहुंचती हैं .
आप लोग पढ़ें , न पढ़ें या क्यों पढ़ें । यह तो आप की बात है । मैं तो फूलों से रंग और सुगंध ,जंगलों से हरियाली और हवा ,पहाड़ों से ठंडी बयार ,नदी की छल-छल ,कल-कल की मधुर ध्वनियाँ और सायं -सायं की गर्जना ,तथा अपने मन की बात । सब कुछ मिलाकर आपकी ओर बढ़ा देता हूँ ।
पढ़ना आज एक समस्या हो गयी है । लोगों की दिनचर्या से पढ़ने के लिए समय ख़त्म हो गया है । और प्रेम करने के लिए भी । प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए भी । ह्रदय एक पम्पिंग मशीन बनकर रह गया है । व्यक्ति राजनीति का एक मोहरा मात्र रह गया है । उसकी अपनी चेतना की डोर जैसे राजनेताओं के हाथों में चली गयी हो ।
यहाँ साहित्य समाप्त हो जाता है , कविता समाप्त हो जाती है । संवेदना ख़त्म हो जाती है ।
एक सुगन्धित और खुबसूरत फूल का होना न होना कोई अर्थ नहीं रखता है ।
क्योंकि सत्ता तो लाशों के ढेर के ऊपर से हो कर गुजरती है । तो जाहिर सी बात है की राज नेता भी सत्ता के पीछे पीछे उसी तरह चलता जायगा ।
राजनेता के लिए सत्ता पाना और सत्ता में बने रहना ही अंतिम सत्य है । और यह रास्ता तानाशाही की ओर जाता है । तानाशाह आजकल क्या कर रहें हैं यह तो आप देख ही रहे हैं ।
प्रकृति से संवाद रोजमर्रा का एक हिस्सा होता है।
और यहीं जन्म लेती हैं कवितायेँ । हवा की मानिंद किताबों से होते हुए आप तक पहुंचती हैं .
आप लोग पढ़ें , न पढ़ें या क्यों पढ़ें । यह तो आप की बात है । मैं तो फूलों से रंग और सुगंध ,जंगलों से हरियाली और हवा ,पहाड़ों से ठंडी बयार ,नदी की छल-छल ,कल-कल की मधुर ध्वनियाँ और सायं -सायं की गर्जना ,तथा अपने मन की बात । सब कुछ मिलाकर आपकी ओर बढ़ा देता हूँ ।
पढ़ना आज एक समस्या हो गयी है । लोगों की दिनचर्या से पढ़ने के लिए समय ख़त्म हो गया है । और प्रेम करने के लिए भी । प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए भी । ह्रदय एक पम्पिंग मशीन बनकर रह गया है । व्यक्ति राजनीति का एक मोहरा मात्र रह गया है । उसकी अपनी चेतना की डोर जैसे राजनेताओं के हाथों में चली गयी हो ।
यहाँ साहित्य समाप्त हो जाता है , कविता समाप्त हो जाती है । संवेदना ख़त्म हो जाती है ।
एक सुगन्धित और खुबसूरत फूल का होना न होना कोई अर्थ नहीं रखता है ।
क्योंकि सत्ता तो लाशों के ढेर के ऊपर से हो कर गुजरती है । तो जाहिर सी बात है की राज नेता भी सत्ता के पीछे पीछे उसी तरह चलता जायगा ।
राजनेता के लिए सत्ता पाना और सत्ता में बने रहना ही अंतिम सत्य है । और यह रास्ता तानाशाही की ओर जाता है । तानाशाह आजकल क्या कर रहें हैं यह तो आप देख ही रहे हैं ।
शुक्रवार, 9 सितंबर 2011
रंगों का मेला
मौसम के अनुसार सुबह अपनी रंगत बदलने लगी है । हल्की सी ठंडक , हल्का -हल्का कोहरा , कुछ ओस की बूंदें और धीरे -धीरे धूप का आना । बदलते महीने के साथ मौसम का बदल रहा है ।
कुदरत का यह मिजाज बहुत मन भावन लगता है ।
यह यादों के लौट आने का मौसम है !
जब हमें उम्मीद रहती है किसी के आने की तो लौट कर आती हैं सिर्फ यादें ।
ठण्ड के साथ । ठण्ड की तरह ।
लौट कर आने लगे हैं फूलों के रंग । जंगलों में हरी घास के साथ कई तरह के फूल अपने -अपने रंगों में खिल आए हैं । यूँ लगा कि कुदरत के मेले में सब पौंधे अपने -अपने रंगों की दुकान ले आए हैं । इन खुबसूरत जंगलों से जाने की इच्छा ही नहीं होती है। कौन सा रंग ले जाऊ ? किस रंग से खुश होगी प्रियतमा ?
बहुत सुन्दर है यह रंगों का मेला । तरह -तरह के रंग हैं , सुख के रंग ,दुःख के रंग।
सबसे सुन्दर रंग है प्रीत का रंग ।
कुदरत का यह मिजाज बहुत मन भावन लगता है ।
यह यादों के लौट आने का मौसम है !
जब हमें उम्मीद रहती है किसी के आने की तो लौट कर आती हैं सिर्फ यादें ।
ठण्ड के साथ । ठण्ड की तरह ।
लौट कर आने लगे हैं फूलों के रंग । जंगलों में हरी घास के साथ कई तरह के फूल अपने -अपने रंगों में खिल आए हैं । यूँ लगा कि कुदरत के मेले में सब पौंधे अपने -अपने रंगों की दुकान ले आए हैं । इन खुबसूरत जंगलों से जाने की इच्छा ही नहीं होती है। कौन सा रंग ले जाऊ ? किस रंग से खुश होगी प्रियतमा ?
बहुत सुन्दर है यह रंगों का मेला । तरह -तरह के रंग हैं , सुख के रंग ,दुःख के रंग।
सबसे सुन्दर रंग है प्रीत का रंग ।
गुरुवार, 8 सितंबर 2011
अत्यंत दुखद/निंदनीय
हे भगवान! यह किया किया इन दरिंदों ने ?
दिल्ली बम ब्लास्ट की निंदा करता हूँ ।
ईश्वर बम ब्लास्ट में मारे गए लोगों की आत्मा को शांति प्रदान करे । तथा उनके शोक शंतप्त परिजनों को इस दुःख को सहन करने की शक्ति प्रदान करे ।
यह बहुत ही दुखद है । ओह ! मानवता अभी भी कितने खूंखार दानवों को झेल रही है ।हम अहिंसा के पक्षधर हैं । यह घटना विश्व शांति पर आघात है ।
क्या हम सब सुरक्षित हैं ?
सरकार क्या कर रही है ? सिर्फ घोटाले और भ्रष्टाचार विरोधियों को जेल भेजने में व्यस्त है ?
क्यों?
दिल्ली बम ब्लास्ट की निंदा करता हूँ ।
ईश्वर बम ब्लास्ट में मारे गए लोगों की आत्मा को शांति प्रदान करे । तथा उनके शोक शंतप्त परिजनों को इस दुःख को सहन करने की शक्ति प्रदान करे ।
यह बहुत ही दुखद है । ओह ! मानवता अभी भी कितने खूंखार दानवों को झेल रही है ।हम अहिंसा के पक्षधर हैं । यह घटना विश्व शांति पर आघात है ।
क्या हम सब सुरक्षित हैं ?
सरकार क्या कर रही है ? सिर्फ घोटाले और भ्रष्टाचार विरोधियों को जेल भेजने में व्यस्त है ?
क्यों?
सोमवार, 5 सितंबर 2011
लोग याद रखते हैं .
कई बार पंक्तियाँ लिखी और उतनी ही बार मिटा दी । लिख कर मिटाना लेखक के हाथ में तभी तक है जब तक लिखा हुआ उसके अपने पास तक ही सीमित है । जहां से लिखा हुआ लोगों तक पहुँच जाता है वहां फिर कोई भी लेखक अपना लिखा हुआ मिटा नहीं सकता है । कुछ इस तरह कि पत्र लिखकर डाकखाने में डालने के बाद उसमें कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता । हाँ !दूसरा पत्र लिखकर पहले के लिखे में संसोधन या नया जोड़ने की बात की जा सकती है ।
आज जमाना डाकखाने का तो लगभग नहीं के बराबर है । पत्र आने अब बंद हो गए हैं । फ़ोन पर हुई बात में वह बात नहीं । एक बार मिले पत्रे को हम कई बार पढ़ते हैं । फिर संभाल कर रखते हैं । कुछ दिनों के बाद फिर उसी को पढ़ना चाहते हैं । बरसों बाद भी उसी पत्र को पढ़ कर वही आनंद आता है । और दशकों बाद वह एक बहुमूल्य दस्तावेज बन जाता है । और हम चाहते हैं कि हमारी मृत्यु के बाद भी पत्र सुरक्षित रहे । लोग पढ़ें । हमारे बच्चे ,बच्चों के भी बच्चे और पूरी दुनियां जाने हमारे राज ।
एक बार लिखकर बाहर आने के बाद वह अमिट हो जाता है । लोग याद रखते हैं । पत्रों को ।
पत्रों के बहाने हमको ।
आज जमाना डाकखाने का तो लगभग नहीं के बराबर है । पत्र आने अब बंद हो गए हैं । फ़ोन पर हुई बात में वह बात नहीं । एक बार मिले पत्रे को हम कई बार पढ़ते हैं । फिर संभाल कर रखते हैं । कुछ दिनों के बाद फिर उसी को पढ़ना चाहते हैं । बरसों बाद भी उसी पत्र को पढ़ कर वही आनंद आता है । और दशकों बाद वह एक बहुमूल्य दस्तावेज बन जाता है । और हम चाहते हैं कि हमारी मृत्यु के बाद भी पत्र सुरक्षित रहे । लोग पढ़ें । हमारे बच्चे ,बच्चों के भी बच्चे और पूरी दुनियां जाने हमारे राज ।
एक बार लिखकर बाहर आने के बाद वह अमिट हो जाता है । लोग याद रखते हैं । पत्रों को ।
पत्रों के बहाने हमको ।
शनिवार, 3 सितंबर 2011
आत्म सुधार की कोशिश हो .
अन्ना महोदय के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के बाद अब सरकार अपना अन्ना विरोधी अभियान चला रहीहै ।
सरकार यह भूल रही है कि अन्ना भारत के दूसरे गाँधी हैं । और स्वतंत्र भारत के पहले गाँधी । जनता इसे माफ़ नहीं करेगी । सरकार को सुधार की मुहिम सरकार से आरंभ करनी चाहिए । यदि कांग्रेस चाहती है कि तीसरी बार सत्ता मिले तो उसे अन्ना और अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी जन लोक पाल बिल का सहर्ष स्वागत करना चाहिए । यदि सरकार बदले की भावना से काम करेगी तो मौजूदा सांसदों का दुबारा जीत कर आना मुश्किल होगा ।
सरकार जनता की प्रतिनिधि की तरह काम करे । राज शाही की तरह नहीं । अन्ना के खिलाफ लगातार अनुचित टिप्पणियां करने वाले सरकार के मंत्री और सांसद जनता के बीच सरकार की छवि धूमिल करने का काम कर रहे हैं ।
सरकार यह भूल रही है कि अन्ना भारत के दूसरे गाँधी हैं । और स्वतंत्र भारत के पहले गाँधी । जनता इसे माफ़ नहीं करेगी । सरकार को सुधार की मुहिम सरकार से आरंभ करनी चाहिए । यदि कांग्रेस चाहती है कि तीसरी बार सत्ता मिले तो उसे अन्ना और अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी जन लोक पाल बिल का सहर्ष स्वागत करना चाहिए । यदि सरकार बदले की भावना से काम करेगी तो मौजूदा सांसदों का दुबारा जीत कर आना मुश्किल होगा ।
सरकार जनता की प्रतिनिधि की तरह काम करे । राज शाही की तरह नहीं । अन्ना के खिलाफ लगातार अनुचित टिप्पणियां करने वाले सरकार के मंत्री और सांसद जनता के बीच सरकार की छवि धूमिल करने का काम कर रहे हैं ।
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