रविवार, 16 जनवरी 2011

सपनों का सच


कल दिनभर सपनों को सींचती रही बारिश,
कल दिन भर की बारिश के बाद एक खुशनुमा दिन ।
दिन धूप की किरणों के साथ चुपचाप खिसकता गया । मैं धूप में बैठा सपनों के ताने -बाने बुनता रहा । कुछ देखे हुए सपने ,और कुछ अनदेखे सपने ,देखे हुए सपनों के धागों से अनदेखे सपनों के चित्र बना रहा था ।
सतरंगी किरणें चुपचाप मेरे सपनों में रंग भर रही थी । मैं सपनों को आकार लेते हुए देख रहा था ।


मेरे सपनों को इंतज़ार था प्राणों का ,मुझे सपनों में प्राण डालने हैं । सपनों में प्राण तो हमें ही पिरोने होते हैं ।

सपने सच भी होते हैं ।
होते भी आये हैं । बिलकुल सच । जैसे देखे थे । तुमने, मैंने ,उसने ,हम सब ने ।

गुरुवार, 13 जनवरी 2011

प्रकृति

सुबह धूप देर से आयी । लेकिन बड़ी मजेदार ।
लेकिन मेरे पास वक़्त नहीं था कि मैं धूप के साथ कुछ देर खड़ा रह सकूँ ।कुछ देर बहती छलछलाती नदी के पास जाऊ ,कुछ देर मछलियों से बातें करूँ ।
और सुबह की ठण्ड भी बहुत तीखी थी लेकिन उसको भी महसूस करने का वक़्त मेरे पास नहीं था । मेरे पास सफ़ेद कुहरे के पास जाने का भी वक़्त नहीं था ।
लगता है कि मेरे केंद्र से प्रकृति हट गई है ,प्रकृति साहित्य के केंद्र से भी हट गई है । कविता के केंद्र से भी हट गई है ।


प्रकृति युद्ध के केंद्र में है ।
और युद्ध का नियंत्रण महाशक्तियों के हाथ में है ।
हर ओर तबाही
भयंकर विनाश । .........दूसरों के विनाश में ही महाशक्तियों का जीवन है ।अन्यथा वे कुछ नहीं
यह सब हमारे हाथ में नहीं । हमारे हाथ में तो सिर्फ लिखना है । बस कुछ अच्छा लिखा जाय ।

  विश्व में युद्ध थमने का नाम नहीं ले रहे।  रूस - यूक्रेन/नाटो  , हमास -  इज़राइल , हिज़्बुल्ला - इज़राईल, ईरान -इज़राईल  के सर्वनाशी युद्धों के...