आज काफी दिनों के बाद अपने ब्लॉग पर बैठा हूँ एक अजीब -सी उधेड़बुन में हूँ कि क्या लिखूं और क्या न लिखूं ? बरसात अपनी हद से आगे निकल कर सब कुछ तहस नहस करने पर आमादा है । कभी पहाड़ सूख रहे थे और अब जगह-जगह पहाड़ धंस रहे हैं । लगता है कि पहाड़ों पर बना हर मकान खतरे की जद में है ।
यह सब अनियंत्रित निर्माण का नतीजा है ।
दिन बहुत व्यस्त रहा । दोपहर बाद कमरे से बाहर निकलने का समय नहीं मिला । कुछ प्रधान लोग आये थे । उनके साथ बातों में रह गया । शाम को बाहर निकल कर कुदरत का नजारा देखा । हरियाली धरती पर बिछ गयी है ,। एक हरे कालीन की तरह ,जिस पर चलते हुए हरे सपने देखे जा सकते हैं ।
यह मौसम प्यार का है । और इसे सहेज कर रखा जा सकता है।
बादलों को देखा । अभी पानी से भरे आकाश में घूम रहे थे लग रहा था कि बरसने के लिए जगह तलाश रहे हों ।
कई दिनों से पुराने सूख चुके झरनों को फिर झरते देखा ।लगता था कि दूध के झरने हैं ।
गुरुवार, 26 अगस्त 2010
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