मंगलवार, 13 जुलाई 2010

अपनी कहानी

सुबह से लेकर दिन ढलने तक की दिनचर्या एक कहानी बन चुकी होती है । अपनी कहानी । जिसे देख भी सकते हैं ,सुन भी सकते हैं दूसरों को सुना भी सकते हैं , पढ़ भी सकते हैं .विश्लेषण भी कर सकते हैं । पर उस कहानी को सम्पादित कर उसमें कोई बदलाव नहीं कर सकते हैं । उस कहानी कोई री -टेक नहीं है। किसी को कुछ कह दिया तो कह दिया । रोटी खाई तो खाई । नहीं खाई तो नहीं खाई । हारे तो हारे ,जीते तो जीते । एक अंश मात्र भी बदलाव की संभावना नहीं ।
अपनी कहानी का एक पात्र हूँ । और एक रस्सी की तरह बहुत सारी चीजों को अपने इर्द-गिर्द लपेटते हुए कई पात्रों को अपने साथ जोड़ते हुए
सब लोगों के बीच खड़ा हूँ या साथ चल रहा हूँ ।
हर रोज अपनी कहानी खुद ही पढ़नी होती है । बिलकुल अकेले ।
रोज की तरह सुबह उठा , पत्नी चाय बनाकर ले आयी । बाहर सुबह की ठंडी बयार में बैठ कर चाय पी । और फिर अपने रोजमर्रा के कामों में जुट गया । एक -एक पल एक कहानी को रचते हुए ।
चारों ओर की सुखद हरियाली ,बादलों से भरा नीला आकाश । और मैं अपने सपनों को तराशते हुए आगे बढ़ते हुए आज की कहानी लिखने बैठा हूँ ।- काश! मौसम का यह रूप हमेशा साथ रहता .
रात स्वप्न अपनी कहानी लिखेंगे
कभी -कभी स्वप्न भी बहुत भयानक कहानी रच डालते हैं । बावजूद इसके स्वप्नों की कहानी भी होती बड़ी दिलचस्प है। और हम बहुत कुछ स्वप्नों की कथा में भी छुपाते हैं । खुद अपनी पत्नी से भी । जो कि हमारी कथा की सबसे पहली पात्र है .

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