शनिवार, 5 दिसंबर 2009

अंधेरे का साथ

एक बार जी में आ रहा था कि कुछ देर मीठी धूप में सो लेना चाहिए । हरी धरती और नीले आकाश को देखता रहूँ । रोजमर्रा की सारी झंझटों को एक किनारे फैंक दूँ । न तो पत्नी की बाहें हों न प्रेमिका का ख़याल । लेकिन इन्हीं सारी झंझटों ने बुरी तरह घेर कर रखा है। और देखते -देखते धूप की तपिश कम हो गई । लगा की पत्नी एक गिलास चाय ले आती तो ठीक रहता । उमा ने दो बार चाय पिलाई भी । पत्नी और बच्चों से घिरा उन्हीं से बतियाते हुए दिन निकल गया , बच्चों के बीच भी लगा कि सारी परेशानियों से दूर हूँ । धूप के यूँ ही चले जाने का कोई मलाल नहीं हुआ । धूप गई तो कोई बात नहीं खूबसूरत पहाड़ तो साथ हैं । और जब अँधेरा इन्हें भी ढँक लेगा तो खूबसूरत अँधेरा तो साथ रहेगा ही ।अँधेरा- एक मौन , एक विराम । नई शुरुआत के लिए ।

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