मंगलवार, 29 सितंबर 2009
महिलाओं की दिनचर्या
नीद जल्दी खुल गई थी . लेकिनअंधरे की वजह से बाहर निकालने का मन नहीं कर रहा था । सुबह जाड़ा दस्तक देने लगा है । दिन गर्म और शाम फिर ठंडी । गावों में महिलाओं की दिनचर्या बहुत व्यस्त होने लगी है सुबह से ही उन्हें घास काटने का तनाव घेर लेता है फिर खाना बनाने की फिक्र दूसरी तरफ़ अनाज व अन्य फसलों को कूटने/मानने /सुखाने -सभालने की मारामारी ,तीसरी चिंता की यदि वारिश हो गई तो बर्ष भर के किए कराये पर पानी फ़िर जायगा -सारे काम आनन -फानन में करने हैं । तब माना जायगा की असोज बटोर लिया है । पहाड़ का दिन महिलाओं के लिए पहाड़ की चढाई जैसा कठिन होता है शाम होते-होते इतना थक चुकी होती हैं कि अपने लिए खाना बनाने की भी सामर्थ्य नहीं रहती । और अगर बच्चे छोटे हों ,उन्हें घर पर देखने वाला कोई न हो तो महिलाओं के साथ -साथ बच्चों की स्थिति भी बहुत दयनीय हो जाती है । रोजगार के लिए पलायन ने पहाड़ की महिलाओं /बूढों और बच्चों को एक भयानक अकेलापन दिया है । पहाडों का सौंदर्य जितना अद्वितीय है समस्यायें भी उतनी ही विकट हैं ।
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