गुरुवार, 31 दिसंबर 2009
नए साल की शुभ कामनाएं .
सभी मित्रों शुभचिंतकों ,विद्वान् पाठकों ,लेखकों ,कवियों, कलाकारों , को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं । हम सभी संकल्प लें कि हम नए साल में एक स्वस्थ , जागरूक ,सह्रदय समाज के निर्माण में अपनी भूमिका निभाएं । हम अपने आसपास के समाज में ही देखें तो दिखाई देगा कि करने के लिए बहुत कुछ है । कमी है तो सिर्फ द्रष्टिकोण की । मौजदा हालात को बेहतर बनाने संकल्प की । मसलन गंगा या अन्य नदियों को प्रदुषण मुक्त करने के लिए राष्ट्रीय संकल्प से अधिक क्षेत्रीय संकल्प महत्वपूर्ण है । उसी प्रकार सामाज के लिए क्षेत्रीय जागरूकता अधिक महत्वपूर्ण है । अपने आसपास की चीजों को जो की समाज के हित में नहीं है उन्हें बदलने की पहल हमें ही करनी होगी । हमारे आसपास बहुत से ऐसे व्यक्ति महिलाएं ,बच्चे या पशु हैं जिन्हें हमारी जरुरत है । हम अपनी लेखनी उनके हितों के लिए भी चलायें । क्षेत्रीय स्तर साहित्य साधना कर रहे संगठनों को इस ओर भी सक्रिय होना चाहिए ।
रविवार, 27 दिसंबर 2009
मछलियाँ कहाँ गई ?
स्याल्दे से आते हुए देख रहा था कि रामगंगा नदी में जल स्तर बहुत कम हो गया है । यह गर्मियों के लिए अच्छा संकेत नहीं है । और इस तरफ किसी का भी ध्यान नहीं है । जाते समय केदार के पुल से देखा कि बड़ी -बड़ी मछलियाँ धूप सेंकते हुए तैर रहीं है । जबकि मासी क सांगू रो पुल के आस पास अब मछलियाँ दिखनी ही बंद हो गई है । मछुआरों ने कारतूस और महाजाल /फांस लगाकर लगभग सारी मछलियाँ मार डाली है। बहुत पहले ,मुझे अब भी याद है कि सांगू रौ में तो अनगिनत मछलियाँ और बड़ी-बड़ी मछलियाँ इसी तरह जाड़ों में धूप सेंकने आया करती थी और लोग बड़े चाव से इन्हें देखने आते थे । लोगों क शिकार खाने कि हवस ने इस प्राकृतिक मत्स्य विहार का खात्मा कर दिया है । जबकि केदार क बारे में मालूम हुआ कि यहाँ मछलियों क शिकार पर पाबन्दी है । तब मासी में इस तरह की पाबन्दी क्यों नहीं ?
शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009
ठंडी सुबह की शुरुआत
कल रात इंटरनेट जल्दी चला गया था तो लिख नहीं पाया । सुबह ठण्ड के मारे और कुछ काम तो हो नहीं पाता लगता है कि हिम युग में हूँ इस ठण्ड में या तो दौड़ने निकला जा सकता है या फिर कोई मश्शकत का काम करने निकला जा सकता है ।ताकि शरीर में गर्मी का संचार हो और पसीना निकल आये ।हर रोज रात को निश्चय करके सोता हूँ कि सुबह पांच बजे उठकर घूमने जाऊंगा लेकिन सुबह उठकर देखता हूँ कि अभी तो बहुत अँधेरा है । जंगली जानवरों -सुअरों, बाघों , सियारों के घूमने का समय है । मेरे लिए ब्लॉग पर बैठ कर आराम से लिखना ही ठीक रहेगा । सोच रहा हूँ कि मई में एक पत्रिका 'सृजन सदर्भ' के नाम से प्रकाशित करूँ । इसके लिए लेखकों से रचनाएँ आमंत्रित करनी होंगी । अभी से तयारी करनी होगी । आज एक दो गावों में जाना है । एन जी ओ शुरू करने के बाद हर व्यक्ति से जुड़ने का अवसर मिला है । गावों को करीब से देखने का मौका मिला है । लोग और उनकी परेशानियों को जानने का मौका मिला है ।
गुरुवार, 24 दिसंबर 2009
पाले कि चादर
यूँ तो सुबह बहुत जल्दी उठ गया था लेकिन चाय पी कर फिर बिस्तर में घुस गया था और उजाला होने के बाद बाहर निकल कर देखा कि बहुत कड़ाके की ठण्ड है । बाहर निकलने की हिम्मत नहीं आ रही है ।मैंसोच रहा था कि आज कोई चिड़िया गा क्यों नहीं रही ? इतनी ठण्ड में कौन पक्षी बाहर निकल कर गायेगा । जबकि बाहर घना कुहरा और जमीन में सफ़ेद पाले की चादर बिछी है और पानी छूना तो आग छूने के समान हो रहा है । ऊँची पहाड़ियों में तो धूप निकल आई होगी .और इस मासी की घाटी में तो कुहरा छंटने के बाद ही धूप आएगी .दिन इतने छोटे हो गए हैं कि बारह बजने के बाद तो लपक कर सीधे सांझ पेश आ रही है । उमा कह रही है कि महाशय जी नहा लो लेकिन मैंने हाथ खड़े कर दिए हैं । अब दिन के काम की रुपरेखा तैयार करता हूँ । अब पक्षियों के गाने की आवाज आने लगी है लगता है कि धूप आ गई है ।
बुधवार, 23 दिसंबर 2009
हर पल एक नया रंग
सुबह से ही बहुत व्यस्त था .दिनु की लड़की हुई है . भतीजी हुई है ताऊ बन गया हूँ । एक अद्भुत अनुभव ।ताऊ बनने का ।मुझे अपने ताऊ याद आ गए । कुछ देर संस्था का कार्य किया । फिर टेक्सी चलाई .और फिर वापस आकर धूप सेंकने बैठ गया दिन में धूप में बैठा देख रहा था कि किरणें पहाड़ों को हर पल एक नए रंग से रंग रही थी । पहाड़ हर पल अपनी आभा बदलते जा रहे थे । लग रहा था कि हम सब प्रकृति के केनवास के चित्र हैं । ऐसे चित्र जिनके भीतर भी एक केनवास है जिसमें कि हमें हर पल रंग भरना है यह हम पर निर्भर करता है कि हमकिस तरह के चित्र बनाते हैं कैसा रंग भरते हैं ।
मंगलवार, 22 दिसंबर 2009
यह समय
अगर हमारे पास काम ज्यादा है तो हमें न तो वक़्त का ख़याल रहता है और न ही हमें प्रकृति से कोई लेना देना होता है । हम भावना शून्य हो जातें हैं संवेदना ख़त्म हो जाती है । और अपने ही समाज से कट जाते हैं हमें अपने काम से अलावा और कुछ नहीं दिखाई देता है जब हम अपने काम से थक चुके होते हैं और सोचते हैं कि थोड़ा बाहर देख लें तो बाहर देखने के लिए बहुत देर हो चुकी होती है । हम धूप के आने और जाने का अनुभव भूल चुके होते हैं । यही नहीं हम रिश्ते भी भूल चुके होते हैं । काम कितना ही हो खुद को प्रकृति से कभी दूर नहीं करना चाहिए । एक गाय और एक आदमी का रिश्ता बना रहना चाहिए । एक पेड़ और एक आदमी का रिश्ता बना रहना चाहिए । आदमी और आदमी का रिश्ता बना रहना चाहिए । और यदि प्रकृति के साथ भावनात्मक रिश्ता ख़त्म हो गया तो प्रकृति को ख़त्म होने में ज्यादा वक़्त नहीं लगेगा । तब हम स्वयं को कहाँ बचा पाएंगे ।
यह समय सबकुछ बचाने का है हमें धूप बचानी है । वर्षा बचानी है । पेड़ बचाने हैं। हवा बचानी है । और मानवीय संवेदना बचानी है तथा प्रकृति के साथ अपने रिश्ते बचाने हैं ।
यह समय सबकुछ बचाने का है हमें धूप बचानी है । वर्षा बचानी है । पेड़ बचाने हैं। हवा बचानी है । और मानवीय संवेदना बचानी है तथा प्रकृति के साथ अपने रिश्ते बचाने हैं ।
सोमवार, 21 दिसंबर 2009
किसान और महंगाई
किसान फिर निराश दिखाई दे रहे हैं वर्षा के कोई आसार नहीं दिख रहे हैं और यदि इस माह वर्षा नहीं हुई तो पहाड़ी क्षेत्रों में गेहूं ,सरसों की फसल मार खा जाएगी । बाज़ार दिन पर दिन महँगा होता जा रहा है गरीब और मजदूरों का क्या होगा यह सरकार के एजंडा में अभी नहीं आया । एक गरीब किसान रो पीट कर /डर के मारे अपना वोट तो दे देता है लेकिन बाद के पांच साल रोता रहता है वोट देने के बाद फिर उसकी कोई नहीं सुनता है । जबकि चुनावों में एक एक नेता लाखों करोड़ों खर्च कर डालता है । खैर में फसल पर बात कर रहा था हमारे यहाँ जल प्रबंधन के साथ साथ फसल प्रबंधन की भी आवश्यकता है । हमें परम्परागत फसल चक्र में परिवर्तन करना होगा तथा बाजार को भी अपने फसल प्रबंधन से जोड़ना होगा ताकि किसान सरकार पर निर्भर न रहे । तथा दिन पर दिन बढ़ती महंगाई से प्रभावित न हो ।
शनिवार, 5 दिसंबर 2009
अंधेरे का साथ
एक बार जी में आ रहा था कि कुछ देर मीठी धूप में सो लेना चाहिए । हरी धरती और नीले आकाश को देखता रहूँ । रोजमर्रा की सारी झंझटों को एक किनारे फैंक दूँ । न तो पत्नी की बाहें हों न प्रेमिका का ख़याल । लेकिन इन्हीं सारी झंझटों ने बुरी तरह घेर कर रखा है। और देखते -देखते धूप की तपिश कम हो गई । लगा की पत्नी एक गिलास चाय ले आती तो ठीक रहता । उमा ने दो बार चाय पिलाई भी । पत्नी और बच्चों से घिरा उन्हीं से बतियाते हुए दिन निकल गया , बच्चों के बीच भी लगा कि सारी परेशानियों से दूर हूँ । धूप के यूँ ही चले जाने का कोई मलाल नहीं हुआ । धूप गई तो कोई बात नहीं खूबसूरत पहाड़ तो साथ हैं । और जब अँधेरा इन्हें भी ढँक लेगा तो खूबसूरत अँधेरा तो साथ रहेगा ही ।अँधेरा- एक मौन , एक विराम । नई शुरुआत के लिए ।
शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009
आज फिर कई दिनों बाद ब्लॉग पर बैठा हूँ , सुबह सोचा था कि आज तीन ग्राम पंचायतों का भ्रमण करूंगा लेकिन एक तलाई और अफों में ही दिन ढलने लगा । दिन इतने छोटे हो गए हैं कि कब दिन निकला और कब ढल गया पता ही नहीं लगता । लौटते हुए सोच रहा था कि नदी में पानी का स्तर अभी से गिरना शुरू हो गया है जंगलों में पेड़ों की सघनता कम हो गई और सबसे महत्त्व का और ध्यान देने की बात है की जंगलों से छोटे जीव जंतु लगभग गायब हो गए हैं जिससे की बाघ और चीतों का पारंपरिक भोजन जंगलों में ख़त्म हो गया है जिस कारण बाघों और चीतों /तेंदुओं ने गावों पर हमला करना शुरू कर दिया है । अभी कुछ दिन पहले अखबार में पढ़ा था कि उत्तराखंड में गत वर्ष करीब १३ बाघ मारे जा चुके हैं । जो कि एक चिंता का विषय है । बाघों का इस तरह आक्रामक हो जाने का एक मुख्य कारण जंगलों उनके भोजन की कमी भी है ।
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