रविवार, 9 नवंबर 2014


बहुधा हमारी आँखों से कई दृश्य निकलते रहते  हैं।  लेकिन हम वही देखते हैं जो हमारे स्वार्थों के लिए उचित होता है. यह सभी प्राणियों के लिए है. लेकिन चूँकि हम यानि मनुष्य  सभी प्राणियों में विवेकवान प्राणी कहे जाते हैं इसलिए हमारा देखने का नजरिया भी विवेकपूर्ण होना चाहिए।

हम अपने स्वार्थों से  बाहर देख सकते हैं.
हम युद्धों का विरोध कर सकते हैं. हम भूखों को देख सकते हैं. अत्याचार को देख सकते हैं. हिंसा को देख सकते हैं।  क्योंकि हमारे पास आँखें हैं. सोचने की शक्ति  है.
यदि इन सभी स्थितियों को देख कर हम अनदेखा  कर निकल जाते हैं. तो इस दुनियां में विवेकवान या सामाजिक  कहलाने के लिए सदियाँ गुजर जायेंगी। 

मंगलवार, 4 नवंबर 2014

नमस्कार मित्रो ,
दिन ढलने के बाद घूमने गया ,मौसम में परिवर्तन आया है. ठण्ड की चुभन महसूस होने लगी है।  
देखा कि  खेत खाली  हो चुके हैं. और किसानों ने खेतों में बीज बो दिए हैं. जमीन ने अपना रंग बदला है. खाली किन्तु जुते हुए खेत भी बहुत खूबसूरत लग रहे हैं. यही कविताओं की जमीन है ,यहां जीवन के रंग हैं यहां सपनों के उगने का इंतज़ार  है आत्म संतोष है. किसानों ने क्या बोया यह तो फसल उगने के बाद ही पता चलेगा।  अक्सर तो हम  जो बोते हैं वही काटते भी हैं. काटना ही पड़ता है.प्रकृति के पास  कोई विकल्प नहीं है.
इस बात की चिंता जरूर है कि जंगल और  खेती की जमीन सिकुड़ती जा रही है और आवश्यक या अनावश्यक मकान बनते  जा रहे है.

दिन एक पन्ने की तरह है जिसमें हम आज की कथा लिखते हैं. और पीछे के पन्ने पलट कर कल का लिखा देख लेते हैं. लेकिन हम अक्सर अपने आज को लिखने की धुन में कल का लिखा पढ़ना नहीं चाहते हैं. अपनी जिंदगी की कापी के भविष्य के खाली पन्नों को देखते जाते हैं. और किसी भी प्रकार  उन्हीं को भरने की धुन में रहते हैं. 

  विश्व में युद्ध थमने का नाम नहीं ले रहे।  रूस - यूक्रेन/नाटो  , हमास -  इज़राइल , हिज़्बुल्ला - इज़राईल, ईरान -इज़राईल  के सर्वनाशी युद्धों के...